एकबाहुबलीका_स्मरण
1699 में जब पिता दशमेश ने ‘खालसा’ सजाई थी तो उसके साथ विजय हुंकार करते हुए कहा था “राज करेगा खालसा, आकि रहे न कोई”।

एक ने उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से जो ‘देबबंद’ से शुरू होकर ‘कश्मीर’ तक जाता था, वहां के हिन्दुओं को अभय दिया तो दूसरे ने पंजाब के बाद पेशावर तक के हिन्दू और सिखों को अपनी सुरक्षा छाया में निर्भय कर दिया। “पिता दशमेश” की आकांक्षा को पूर्ण करने वाला एक “संन्यासी” था और दूसरा “क्षत्रिय सिख” जिसने “गुरदयाल उप्पल” और “धर्मा कौर” के घर जन्म लिया था और बड़े सामान्य परिवार में जन्मा ये वीर अपनी योग्यता से केवल 14 साल की उम्र में “धर्म के सूर्य” सम्राट रणजीत सिंह की आँखों का ऐसा तारा बन गया था कि महाराज उसके बिना रह ही नहीं पाते थे।
पिता दशमेश के इस “जयघोष” के संकल्प को मूर्त रूप देने को प्रस्तुत हुए “बाबा बंदा सिंह बहादुर” और “हरिसिंह नलवा”।
पूर्ण वैदिक और पूर्ण पौराणिक “महाराज रणजीत सिंह” ने शिकार के दौरान उनपर हमला करने वाले एक शेर को अकेले ही मार गिराने के बाद हरिसिंह को “नलवा” (प्रतापी सम्राट नल नाम पर) नाम दिया था और इस अजेय सेनापति ने उनके लिए उस अफगानिस्तान को जीत लिया जिसे अजेय और दुर्गम समझा जाता रहा था।
“महाराज रणजीत सिंह” ने भारत-भूमि की सीमा का पश्चिमी दिशा में जहाँ तक विस्तार का स्वप्न देखा, ‘नलवा’ की तलवार उसे साकार करती गई।
स्पेन के फर्डिनांड, बप्पा रावल, नागभट्ट द्वितीय और बंदा सिंह बहादुर के बाद हरिसिंह नलवा ही थे, जिनके नाम से आकियों (आक्रान्ताओं) की रातों की नींद उड़ जाया करती थी।
शोले फिल्म का मशहूर डायलॉग “यहाँ से पचास-पचास मील दूर जब कोई बच्चा रोता है तो माँ कहती है, सो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा” दरअसल हरिसिंह नलवा के जीवनवृत से चुराया हुआ है। अफ़गानी माएं अपने बच्चों को सुलाते हुए कहा करतीं थी :- “सो जा नहीं तो नलवा आ जायेगा”।
“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” “कटक से अटक” तक के जिस भारत के सांस्कृतिक एक्य की बात अपने बौद्धिक सत्रों में करता है उसे राजनैतिक रूप से सदियों बाद “नलवा” ने एक कर साकार कर दिया था।
1813 ई. में अटक, 1818 ई. में मुल्तान,1819 .में कश्मीर और फिर 1823 ई. में पेशावर …..एक के बाद इन प्रदेशों को जीतकर रणजीत सिंह की सीमा का विस्तार हरिसिंह नलवा ने ही किया था।
एक कुशल सेनापति “सरदार हरि सिंह नलवा” एक संत भी थे जो नानक जी के “सरबत का भला” से लेकर पिता दशमेश के स्वप्न “राज करेगा ख़ालसा” के “रणंजय” भी थे। इन दोनों महान गुणों को एकसाथ शिरोधार्य करने वाले “नलवा” ‘बंदा सिंह बहादुर’ की श्रेणी में थे।
आज के दिन यानि #30_अप्रैल को 1837 ईo में जमरूद में भयंकर लड़ाई हुई, हरिसिंह नलवा उस वक़्त गंभीर रूप से बीमार थे पर “रणंजय” नलवा ने बिस्तर पर पड़े रहने की बजाये युद्ध-भूमि में जाना स्वीकार किया और जैसे ही अफ़गानों ने सुना कि “नलवा” युद्धभूमि में आ गया है, वो भागने शुरू हो गए, जो भागे नहीं उनके हाथ से भय से तलवारें छूटने लगी। इस बुखार की हालत में भी उन्होंने अफगानों की 14 तोपें छीन लीं पर छल से दो गोलियां उन्हें मारी गई और उन्होंने शरीर छोड़ दिया। शरीर त्यागने के बाद अफगान उत्साहित न हों और उनकी अपनी सेना हतोत्साहित न हो इसके लिए उनकी इच्छा के अनुरूप उनके “शरीरांत” की बात छुपाई गई और उनके मृत शरीर को किले के परकोटे पर तीन दिनों तक बैठे हुए अवस्था में लाकर रखा गया मानो ये वीर वहीं से सेना का निरीक्षण कर रहे हों।
युद्धभूमि में उनकी इस उपस्थिति से जीत की ओर बढ़ रहे अफ़गानों को पराजय का सामना करना पड़ा और अपनी सेना को विजयश्री का वरण करवाकर ही उनकी आत्मा ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
“31 अक्तूबर 1987, नागपुर के विदर्भ क्रिकेट स्टेडियम में सुनील गावस्कर ने न्यूजीलैंड के खिलाफ 103 रनों की नाबाद पारी खेली थी। इस दिन सुनील गावस्कर को 102 डिग्री बुखार था”
गावस्कर के संदर्भ में ये “बुखार में शतक” वाली बात भारत के बच्चे-बड़े सबको पता है पर 19 वीं सदी के एक वीर हरिसिंह ने भी “बुखार” में राष्ट्र बचाया था, राष्ट्र की सीमाओं को विस्तृत किया था और समर-भूमि में बलिदान देकर अमर हो गए थे, ये बात हममें से कितनों को पता है?
आत्मचिंतन करिये, अपने वीरों के प्रति अपनी कृतघ्नताओं पर सोचिये और हो सके तो आज “हरिसिंह नलवा” को उनकी पुण्यतिथि पर कुछ देर के लिए ही सही याद कर लीजिए; ताकि हमारे कुछ पापों का परिमार्जन हो सके।
Mamta Yas