बंद हो जिहादी सूफियों को ‘संत’ कहना

*मंदिर तोड़े, गाँव के गाँव मुस्लिम बना दिए•
*राजाओं का भी किया धर्मांतरण•
*बंद हो जिहादी सूफियों को ‘संत’ कहना•
*वामपंथियों ने किया गुणगान•


भारत में अक्सर ‘सूफी परंपरा’ की तुलना ‘भक्ति आंदोलन’ से की जाती रही है। ऐसा जानबूझ कर किया जाता है, ताकि रैदास और चैतन्य महाप्रभु जैसों की तुलना में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती और चाँद मियाँ जैसों को खड़ा किया जा सके। सूफियों को ‘संत’ कहा जाता है, ताकि हिन्दू भी उनका सम्मान करें, उनकी पूजा करें और उनके मजार पर जाकर मत्था टेकें। क्या वाकई में ये सूफी इतने महान थे? इन्हिने हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाई और गरीबों की सेवा की?

असल में इन सूफी फकीरों को भेजा ही इसीलिए जाता था, ताकि वो गरीबों को बहला-फुसला कर और उनके साथ प्रेमपूर्वक बर्ताव कर के इस्लामी धर्मांतरण कराएँ। जैसे इस्लामी शासन खून-खराबे से साम्राज्य विस्तार करते चलते थे, इन सूफियों को समाज को तोड़ने के लिए लगाया जाता था। वो अच्छी-अच्छी बातें करते थे, ताकि लोग उन्हें ‘संत’ मानें। उद्देश्य इस्लामी आक्रांताओं और सूफियों का समान ही था – इस्लाम का विस्तार।

लेखिका तस्लीमा नसरीन ने भी अपनी पुस्तक ‘निषिद्ध’ में लिखा है कि सूफियों के ‘प्रेमपूर्वक बर्ताव’ के कारण कई हिन्दुओं ने धर्मांतरण किया। इसका एक उदाहरण देखिए। पेंटर अकबर पद्ममसी के पूर्वज कभी हिन्दू हुआ करते थे, लेकिन 17वीं शताब्दी सूफी पीर सददीन ने उनके परिवार का इस्लामी धर्मांतरण करा के उन्हें मुस्लिम बना दिया। पूरे परिवार के मन में बिठा दिया गया कि पैगंबर मुहम्मद, विष्णु के 11वें अवतार हैं।

आइए, एक उदाहरण बंगाल से भी लेते हैं। बंगाल में एक राजा गणेश हुए हैं। उनके राज्य में भी क़ुतुब अल आलम नाम का सूफी फ़कीर आकर रहता था और उसने अपनी ‘चमत्कारी’ छवि बना रखी थी। आक्रांताओं के खतरे को कम करने के लिए राजा ‘चमत्कार’ का सहारा लेने पहुँचे। सूफी ने कह दिया कि राजा गणेश का बेटा जदु यदि इस्लाम अपना कर राज्य चलाता है तो सारे खतरे टल जाएँगे।

फिर क्या था, जदु को ‘जलालुद्दीन मुहम्मद शाह’ बना कर गद्दी पर बिठा दिया गया। क़ुतुब अल आलम की मौत के बाद राजा गणेश ने पूरे विधि-विधान से उसे हिन्दू धर्म में वापस लाने की प्रक्रिया पूरी की और ‘दनुजमर्दन देव’ नाम से उसका नया नामकरण किया। हालाँकि, ‘सूफी’ का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा था कि पिता की मौत के बाद उसने फिर इस्लाम अपना लिया। उसका बेटा ‘शमशुद्दीन अहमद शाह’ हुआ। 15वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हुए इस उथल-पुथल ने बंगाल में इस्लाम का विस्तार शुरू किया।

इसी तरह 14वीं शताब्दी के कुछ शिलालेख शाह जलाल मुजर्रद की बातें करते हैं। बताया गया है कि वो ‘जिहाद’ और ‘काफिरों के खिलाफ युद्ध’ के लिए भारत आया था। साथ ही कहा गया था कि ‘दारुल हरब (नॉन-इस्लाम के राज वाली भूमि)’ में शहीद होकर वो ‘गाजी’ बन सकता है, ऐसी उसे शिक्षा मिली थी। वो युद्ध लड़ता था और अपने जीत होने पर अपने अनुयायियों के साथ इस्लाम का झंडा गाड़ता था।

इसी तरह बंगाल के एक और तथाकथित ‘सूफी संत’ शेख जलाल अल-दीन तबरीजी को देखिए। 13वीं शताब्दी में वो दिल्ली आया था, लेकिन वहाँ भाव न मिलने पर बंगाल आ गया। उसके पक्ष में दलीलें दी जा सकती हैं कि उसने अस्पताल व सामुदायिक किचन बनवाए, लेकिन उसके बारे में समकालीन स्रोतों ने ये भी लिखा है कि उसने एक ‘काफिर’ द्वारा बनवाए गए मंदिर को ध्वस्त कर दिया और उसकी जगह वहाँ ‘सूफी तकिया (रेस्ट हाउस)’ बनवाया। लिखा है कि उसने कई ‘काफिरों’ का इस्लामी धर्मांतरण कराया था।

ये भारत में आने वाले सबसे शुरुआती सूफी लोग थे। जब शुरुआत ही ऐसी थी तो फिर उसके बाद क्या सब हुआ होगा, ये आप समझ सकते हैं। असल में ये सूफी इस्लामी आक्रांताओं का मुखौटा होते थे, जो समाज को प्रदूषित करते हुए हिन्दू राजाओं के विरुद्ध माहौल तैयार करते थे। कभी-कभी ये युद्ध भी लड़ते थे। इस्लामी आक्रांताओं का राज आने पर इन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिलता था, इसीलिए गरीब लोग भी इन्हें अपना सब कुछ मान लेते थे।

आइए, अब उन दो सूफी संतों की बात करते हैं, जिन्हें भारत में आज भी पूजा जाता है। स्पष्ट है कि पहला नाम इसमें अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का है। ये महज ‘संयोग’ ही था या कुछ और कि जिस साल मोहम्मद गोरी हार कर भागा, उसके अगले ही साल या कुछ ही दिनों बाद एक सूफी संत ने अजमेर में डेरा जमाया, पृथ्वीराज चौहान की राजधानी में। वहाँ वह कई चमत्कार करने लगा। आस-पास के लोगों में उसके प्रति जिज्ञासा जागी। वह लोगों से काफी अच्छे से पेश आता। गाँव के गाँव इस्लाम में धर्मांतरित होने शुरू हो गए।

बिना हथियार उठाए चिश्ती ने वो जमीन तैयार कर दी, जहाँ वो अगले 44 वर्षों तक इस्लाम का प्रचार-प्रसार करता रहा। 1191 में गोरी हारा और 1192 में दोबारा लौट कर आया। इसी अवधि के बीच चिश्ती ने अजमेर में डेरा जमाया। आखिर ऐसे संवेदनशील समय में चिश्ती भारत क्यों आया था? वो अपने चेलों-शागिर्दों के साथ पहुँचा था। चिश्ती ‘काफिरों के खिलाफ इस्लामी जिहाद’ के लिए भारत आया था।

तभी तो पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद ‘ख्वाजा’ मोईनुद्दीन चिश्ती ने जीत का श्रेय लेते हुए कहा था, “हमने पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) को जिंदा दबोच लिया और उसे इस्लाम की फौज के हवाले कर दिया।” पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ गद्दारी वाला युद्ध लड़ने के लिए ही मोईनुद्दीन चिश्ती भारत आया था, ताकि वो मोहम्मद गोरी की तरफ से उसकी सहायता कर सके और उसका काम आसान कर सके।

इसी तरह बहराइच में गाजी सैयद सालार मसूद उर्फ़ गाजी मियाँ की दरगाह है, जिसने हिन्दुओं का कत्लेआम किया था और धर्म ग्रंथों को तहस-नहस किया था। उसे महाराजा सुहेलदेव ने सन् 1034 के एक युद्ध में मार गिराया था। गाजी भारत में कई बार आक्रमण करने वाले मौमूद गजनवी का भांजा था। इस्लामी आक्रांता फिरोजशाह तुगलक ने उसका मजार बनवाया था। वामपंथियों की मानें तो हिन्दू उसे प्यार से ‘बाले मियाँ’ और ‘हठीला’ कहते थे, बाल श्रीकृष्ण से उसकी तुलना करते थे।

उसने ज़ुहरा बीबी नाम की एक लड़की से शादी की थी। दावा किया जाता है कि उसने उस लड़की का अंधापन ठीक कर दिया था। हालाँकि, आपको भारत में आए सूफियों और फकीरों के बारे में कई ऐसी कहानियाँ मिलेंगी, जहाँ उन्होंने किसी लड़की या उसके परिवार पर इस तरह का ‘चमत्कार’ कर के उससे शादी की हो। इतिहासकार एना सुवोरोवा ने तो गाजी मियाँ की तुलना श्रीकृष्ण और श्रीराम तक से कर दी है और कहा है कि हिन्दू उसे इसी रूप में देखते थे।

‘दैनिक जागरण’ में वरिष्ठ लेखक व पत्रकार अनंत विजय ने भी अपने एक स्तंभ में लेखक सुधीश पचौरी के हवाले से लिखा है कि ये सूफी इस्लाम के प्रचारक थे। वो सुल्तानों के साथ आते थे, और कट्टर से इतर नरम रुख अपनाते थे। सुल्तान जहाँ जाते थे, वहाँ सूफी इस्लाम को मजबूर करने निकल पड़ते थे। हिंदी साहित्य में भी ‘संत’ बता कर उनका महिमामंडन किया गया। अब समय आ गया है कि इन सूफियों को ‘संत’ न कहा जाए।
(26 September, 2021अनुपम कुमार सिंहआप इण्डिया काम)

Author: Sanatan Dharm and Hinduism

My job is to remind people of their roots. There is no black,white any religion in spiritual science. It is ohm tat sat.

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