1699 में जब पिता दशमेश ने ‘खालसा’ सजाई थी तो उसके साथ विजय हुंकार करते हुए कहा था “राज करेगा खालसा, आकि रहे न कोई”।
एक ने उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से जो ‘देबबंद’ से शुरू होकर ‘कश्मीर’ तक जाता था, वहां के हिन्दुओं को अभय दिया तो दूसरे ने पंजाब के बाद पेशावर तक के हिन्दू और सिखों को अपनी सुरक्षा छाया में निर्भय कर दिया। “पिता दशमेश” की आकांक्षा को पूर्ण करने वाला एक “संन्यासी” था और दूसरा “क्षत्रिय सिख” जिसने “गुरदयाल उप्पल” और “धर्मा कौर” के घर जन्म लिया था और बड़े सामान्य परिवार में जन्मा ये वीर अपनी योग्यता से केवल 14 साल की उम्र में “धर्म के सूर्य” सम्राट रणजीत सिंह की आँखों का ऐसा तारा बन गया था कि महाराज उसके बिना रह ही नहीं पाते थे।
पिता दशमेश के इस “जयघोष” के संकल्प को मूर्त रूप देने को प्रस्तुत हुए “बाबा बंदा सिंह बहादुर” और “हरिसिंह नलवा”।
पूर्ण वैदिक और पूर्ण पौराणिक “महाराज रणजीत सिंह” ने शिकार के दौरान उनपर हमला करने वाले एक शेर को अकेले ही मार गिराने के बाद हरिसिंह को “नलवा” (प्रतापी सम्राट नल नाम पर) नाम दिया था और इस अजेय सेनापति ने उनके लिए उस अफगानिस्तान को जीत लिया जिसे अजेय और दुर्गम समझा जाता रहा था।
“महाराज रणजीत सिंह” ने भारत-भूमि की सीमा का पश्चिमी दिशा में जहाँ तक विस्तार का स्वप्न देखा, ‘नलवा’ की तलवार उसे साकार करती गई।
स्पेन के फर्डिनांड, बप्पा रावल, नागभट्ट द्वितीय और बंदा सिंह बहादुर के बाद हरिसिंह नलवा ही थे, जिनके नाम से आकियों (आक्रान्ताओं) की रातों की नींद उड़ जाया करती थी।
शोले फिल्म का मशहूर डायलॉग “यहाँ से पचास-पचास मील दूर जब कोई बच्चा रोता है तो माँ कहती है, सो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा” दरअसल हरिसिंह नलवा के जीवनवृत से चुराया हुआ है। अफ़गानी माएं अपने बच्चों को सुलाते हुए कहा करतीं थी :- “सो जा नहीं तो नलवा आ जायेगा”।
“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” “कटक से अटक” तक के जिस भारत के सांस्कृतिक एक्य की बात अपने बौद्धिक सत्रों में करता है उसे राजनैतिक रूप से सदियों बाद “नलवा” ने एक कर साकार कर दिया था।
1813 ई. में अटक, 1818 ई. में मुल्तान,1819 .में कश्मीर और फिर 1823 ई. में पेशावर …..एक के बाद इन प्रदेशों को जीतकर रणजीत सिंह की सीमा का विस्तार हरिसिंह नलवा ने ही किया था।
एक कुशल सेनापति “सरदार हरि सिंह नलवा” एक संत भी थे जो नानक जी के “सरबत का भला” से लेकर पिता दशमेश के स्वप्न “राज करेगा ख़ालसा” के “रणंजय” भी थे। इन दोनों महान गुणों को एकसाथ शिरोधार्य करने वाले “नलवा” ‘बंदा सिंह बहादुर’ की श्रेणी में थे।
आज के दिन यानि #30_अप्रैल को 1837 ईo में जमरूद में भयंकर लड़ाई हुई, हरिसिंह नलवा उस वक़्त गंभीर रूप से बीमार थे पर “रणंजय” नलवा ने बिस्तर पर पड़े रहने की बजाये युद्ध-भूमि में जाना स्वीकार किया और जैसे ही अफ़गानों ने सुना कि “नलवा” युद्धभूमि में आ गया है, वो भागने शुरू हो गए, जो भागे नहीं उनके हाथ से भय से तलवारें छूटने लगी। इस बुखार की हालत में भी उन्होंने अफगानों की 14 तोपें छीन लीं पर छल से दो गोलियां उन्हें मारी गई और उन्होंने शरीर छोड़ दिया। शरीर त्यागने के बाद अफगान उत्साहित न हों और उनकी अपनी सेना हतोत्साहित न हो इसके लिए उनकी इच्छा के अनुरूप उनके “शरीरांत” की बात छुपाई गई और उनके मृत शरीर को किले के परकोटे पर तीन दिनों तक बैठे हुए अवस्था में लाकर रखा गया मानो ये वीर वहीं से सेना का निरीक्षण कर रहे हों।
युद्धभूमि में उनकी इस उपस्थिति से जीत की ओर बढ़ रहे अफ़गानों को पराजय का सामना करना पड़ा और अपनी सेना को विजयश्री का वरण करवाकर ही उनकी आत्मा ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
“31 अक्तूबर 1987, नागपुर के विदर्भ क्रिकेट स्टेडियम में सुनील गावस्कर ने न्यूजीलैंड के खिलाफ 103 रनों की नाबाद पारी खेली थी। इस दिन सुनील गावस्कर को 102 डिग्री बुखार था”
गावस्कर के संदर्भ में ये “बुखार में शतक” वाली बात भारत के बच्चे-बड़े सबको पता है पर 19 वीं सदी के एक वीर हरिसिंह ने भी “बुखार” में राष्ट्र बचाया था, राष्ट्र की सीमाओं को विस्तृत किया था और समर-भूमि में बलिदान देकर अमर हो गए थे, ये बात हममें से कितनों को पता है?
आत्मचिंतन करिये, अपने वीरों के प्रति अपनी कृतघ्नताओं पर सोचिये और हो सके तो आज “हरिसिंह नलवा” को उनकी पुण्यतिथि पर कुछ देर के लिए ही सही याद कर लीजिए; ताकि हमारे कुछ पापों का परिमार्जन हो सके।
पूरी पोस्ट गम्भीरता से पढ़े ,चीन की सभ्यता 5000 साल पुरानी मानी जाती है, लगभग महाभारत काल का समय, तो चीन का उल्लेख महाभारत में क्यों नहीं है? महाभारत काल में भारतीयों का विदेशों से संपर्क, प्रमाण जानकर चौंक जाएंगे
युद्ध तिथि : महाभारत का युद्ध और महाभारत ग्रंथ की रचना का काल अलग अलग रहा है। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने की जरूरत नहीं। यह सभी और से स्थापित सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व को हुआ हुआ। भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ और कलियुग का आरम्भ कृष्ण के निधन के 35 वर्ष पश्चात हुआ। महाभारत काल वह काल है जब सिंधुघाटी की सभ्यता अपने चरम पर थी। विद्वानों का मानना है कि महाभारत में वर्णित सूर्य और चंद्रग्रहण के अध्ययन से पता चलता है कि युद्ध 31वीं सदी ईसा पूर्व हुआ था लेकिन ग्रंथ का रचना काल भिन्न भिन्न काल में गढ़ा गया। प्रारंभ में इसमें 60 हजार श्लोक थे जो बाद में अन्य स्रोतों के आधार पर बढ़ गए। इतिहासकार डी.एस त्रिवेदी ने विभिन्न ऐतिहासिक एवं ज्योतिष संबंधी आधारों पर बल देते हुए युद्ध का समय 3137 ईसा पूर्व निश्चित किया है। ताजा शोधानुसार ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था।…तो यह तो थी युद्ध तिथि। अब जानिए महाभारत काल में भारतीयों का विदेशियों से संपर्क। महाभारत काल में अखंड भारत के मुख्यत: 16 महाजनपदों (कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कोशल, मल्ल, काशी, अंग, मगध, वृज्जि, चेदि, मत्स्य, अश्मक, अवंति, गांधार और कंबोज) के अंतर्गत 200 से अधिक जनपद थे। दार्द, हूण, हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकय, वाल्हीक बलख, अभिसार (राजौरी), कश्मीर, मद्र, यदु, तृसु, खांडव, सौवीर सौराष्ट्र, शल्य, यवन, किरात, निषाद, उशीनर, धनीप, कौशाम्बी, विदेही, अंग, प्राग्ज्योतिष (असम), घंग, मालव, कलिंग, कर्णाटक, पांडय, अनूप, विन्ध्य, मलय, द्रविड़, चोल, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, आंध्र, सिंहल, आभीर अहीर, तंवर, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ लगभग 200 जनपद से अधिक जनपदों का महाभारत में उल्लेख मिलता है। महाभारत काल में म्लेच्छ और यवन को विदेशी माना जाता था। भारत में भी इनके कुछ क्षेत्र हो चले थे। हालांकि इन विदेशियों में भारत से बाहर जाकर बसे लोग ही अधिक थे। देखा जाए तो भारतीयों ने ही अरब और योरप के अधिकतर क्षेत्रों पर शासन करके अपने कुल, संस्कृति और धर्म को बढ़ाया था। उस काल में भारत दुनिया का सबसे आधुनिक देश था और सभी लोग यहां आकर बसने और व्यापार आदि करने के प्रति उत्सुक रहते थे। भारतीय लोगों ने भी दुनिया के कई हिस्सों में पहुंचकर वहां शासन की एक नए देश को गढ़ा है, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, थाईलैंड इसके बचे हुए उदाहरण है। भारत के ऐसे कई उपनिवेश थे जहां पर भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचलन था। ऋषि गर्ग को यवनाचार्य कहते थे। यह भी कहा जाता है कि अर्जुन की आदिवासी पत्नी उलूपी स्वयं अमेरिका की थी। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी कंदहार और पांडु की पत्नी माद्री ईरान के राजा सेल्यूकस (शल्य) की बहिन थी। ऐसे उल्लेख मिलता है कि एक बार मुनि वेद व्यास और उनके पुत्र शुकदेव आदि जो अमेरिका मेँ थे। शुक ने पिता से कोई प्रश्न पूछा। व्यास जी इस बारे मेँ चूंकि पहले बता चुके थे, अत उन्होंने उत्तर न देते हुए शुक को आदेश दिया कि शुक तुम मिथिला (नेपाल) जाओ और यही प्रश्न राजा जनक से पूछना। तब शुक अमेरिका से नेपाल जाना पड़ा था। कहते हैं कि वे उस काल के हवाई जहाज से जिस मार्ग से निकले उसका विवरण एक सुन्दर श्लोक में है:- “मेरोहर्रेश्च द्वे वर्षे हेमवँते तत:। क्रमेणेव समागम्य भारतं वर्ष मासदत्।। सदृष्टवा विविधान देशान चीन हूण निषेवितान। अर्थात शुकदेव अमेरिका से यूरोप (हरिवर्ष, हूण, होकर चीन और फिर मिथिला पहुंचे। पुराणों हरि बंदर को कहा है। वर्ष माने देश। बंदर लाल मुंह वाले होते हैं। यूरोपवासी के मुंह लाल होते हैं। अत:हरिवर्ष को यूरोप कहा है। हूणदेश हंगरी है यह शुकदेव के हवाई जहाज का मार्ग था।…अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। जम्बू द्वीप के वर्ण में अमेरिका का उल्लेख भी मिलता है। पारसी, यजीदी, पैगन, सबाईन, मुशरिक, कुरैश आदि प्रचीन जाति को हिन्दू धर्म की प्राचीन शाखा माना जाता है।
ऋग्वेद में सात पहियों वाले हवाई जहाज का भी वर्णन है।- “सोमा पूषण रजसो विमानं सप्तचक्रम् रथम् विश्वार्भन्वम्।”… इसके अलावा ऋग्वेद संहिता में पनडुब्बी का उल्लेख भी मिलता है, “यास्ते पूषन्नावो अन्त:समुद्रे हिरण्मयी रन्तिरिक्षे चरन्ति। ताभिर्यासि दूतां सूर्यस्यकामेन कृतश्रव इच्छभान:”। श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्नि यान (अश्वतरी) से समुद्र द्वारा उद्धालक ऋषि को आर्यावर्त लाने के लिए पाताल गए। भीम, नकुल और सहदेव भी विदेश गए थे। अवसर था युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का। यह महान ऋषियोँ और राजाओँ को निमंत्रण देने गए। यह लोग चारों दिशाओं में गए। कृष्ण-अर्जुन का अग्नियान अति आधुनिक मोटर वोट थी। कहते हैं कि कृष्ण और बलराम एक बोट के सहारे ही नदी मार्ग से बहुत कम समय में मथुरा से द्वारिका में पहुंच जाते थे। महाभारत में अर्जुन के उत्तर-कुरु तक जाने का उल्लेख है। कुरु वंश के लोगों की एक शाखा उत्तरी ध्रुव के एक क्षेत्र में रहती थी। उन्हें उत्तर कुरु इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे हिमालय के उत्तर में रहते थे। महाभारत में उत्तर-कुरु की भौगोलिक स्थिति का जो उल्लेख मिलता है वह रूस और उत्तरी ध्रुव से मिलता-जुलता है। हिमालय के उत्तर में रशिया, तिब्बत, मंगोल, चीन, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान आदि आते हैं। अर्जुन के बाद बाद सम्राट ललितादित्य मुक्तापिद और उनके पोते जयदीप के उत्तर कुरु को जीतने का उल्लेख मिलता है। अर्जुन के अपने उत्तर के अभियान में राजा भगदत्त से हुए युद्ध के संदर्भ में कहा गया है कि चीनियों ने राजा भगदत्त की सहायता की थी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ सम्पन्न के दौरान चीनी लोग भी उन्हें भेंट देने आए थे। महाभारत में यवनों का अनेका बार उल्लेख हुआ है। संकेत मिलता है कि यवन भारत की पश्चिमी सीमा के अलाव मथुरा के आसपास रहते थे। यवनों ने पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में भयंकर आक्रमण किया था। कौरव पांडवों के युद्ध के समय यवनों का उल्लेख कृपाचार्य के सहायकों के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यवन, म्लेच्छ और अन्य अनेकानेक अवर वर्ण भी क्षत्रियों के समकक्ष आदर पाते थे। महाभारत काल में विदेशी भाषा के प्रयोग के संकेत भी विद्यमान हैं। कहते हैं कि विदुर लाक्षागृह में होने वाली घटना का संकेत विदेशी भाषा में देते हैं। जरासंध का मित्र कालयवन खुद यवन देश का था। कालयवन ऋषि शेशिरायण और अप्सारा रम्भा का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था। उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले। ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। महाभारत में उल्लेख मिलता है कि नकुल में पश्चिम दिशा में जाकर हूणों को परास्त किया था। युद्धिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने के बाद हूण उन्हें भेंट देने आए थे। उल्लेखनीय है कि हूणों ने सर्वप्रथम स्कन्दगुप्त के शासन काल (455 से 467 ईस्वी) में भारत के भितरी भाग पर आक्रमण करके शासन किया था। हूण भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। इसी प्रकार महाभारत में सहदेव द्वारा दक्षिण भारत में सैन्य अभियान किए जाने के संदर्भ में उल्लेख मिलता है कि सहदेव के दूतों ने वहां स्थित यवनों के नगर को वश में कर लिया था। प्राचीनकाल में भारत और रोम के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। आरिकामेडु ने सन् 1945 में व्हीलर द्वारा कराए गए उत्खनन के फलस्वरूप रोमन बस्ती का अस्तित्व प्रकाश में आया है। महाभारत में दक्षिण भारत की यवन बस्ती से तात्पर्य आरिकामेडु से प्राप्त रोमन बस्ती ही रही होगी। हालांकि महाभारत में एक अन्य स्थान पर रोमनों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार रोमनों द्वारा युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समापन में दौरान भेंट देने की बात कही गई है। महाभारत में शकों का उल्लेख भी मिलता है। शक और शाक्य में फर्क है। शाक्य जाति तो नेपाल और भारत में प्रचीनकाल से निवास करने वाली एक जाति है। नकुल में पश्चिम दिशा में जाकर शकों को पराजित किया था। शकों ने भी राजसूय यज्ञ समापन पर युधिष्ठिर को भेंट दिया था। महाभारत के शांतिपर्व में शकों का उल्लेख विदेशी जातियों के साथ किया गया है। नकुल ने ही अपने पश्चिमी अभियान में शक के अलावा पहृव को भी पराजित किया था। पहृव मूलत: पार्थिया के निवासी थे। प्राचीन भारत में सिंधु नदी का बंदरगाह अरब और भारतीय संस्कृति का मिलन केंद्र था। यहां से जहाज द्वारा बहुत कम समय में इजिप्ट या सऊदी अरब पहुंचा जा सकता था। यदि सड़क मार्ग से जाना हो तो बलूचिस्तान से ईरान, ईरान से इराक, इराक से जॉर्डन और जॉर्डन से इसराइल होते हुई इजिप्ट पहुंचा जा सकता था। हालांकि इजिप्ट पहुंचने के लिए ईरान से सऊदी अरब और फिर इजिप्ट जाया जा सकता है, लेकिन इसमें समुद्र के दो छोटे-छोटे हिस्सों को पार करना होता है। यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र था। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। मान्यता है कि यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के 3 भाई मिस्र में ही रहते थे। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था। ऋग्वेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं। ऋग्वेद में नौका द्वारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख मिलते हैं। एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख भी मिलता है। ऋग्वेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ-साथ भारत के दोनों महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर कहा जाता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तारित तथा आरामदायक भी थीं। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे। भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है।भारत में सिंधु, गंगा, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र ऐसी नदियां हैं जिस पर पौराणिक काल में नौका, जहाज आदि के चलने का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1. 25. 7, 1. 48. 3, 1. 56. 2, 7. 88. 3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है। ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व का समय महाभारत का काल था। अमेरिका का उल्लेख पुराणों में पाताललोक, नागलोक आदि कहकर बताया गया है। इस अंबरिष भी कहते थे। जैसे मेक्सिको को मक्षिका कहा जाता था। कहते हैं कि मेक्सिको के लोग भारतीय वंश के हैं। वे भारतीयों जैसी रोटी थापते हैं, पान, चूना, तमाखू आदि चबाते हैं। नववधू को ससुराल भेजने समय उनकी प्रथाएं, दंतकथाएं, उपदेश आदि भारतीयों जैसे ही होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक ओर मेक्सिको है तो दूसरी ओर कनाडा। अब इस कनाडा नाम के बारे में कहा जाता है कि यह भारतीय ऋषि कणाद के नाम पर रखा गया था। यह बात डेरोथी चपलीन नाम के एक लेखक ने अपने ग्रंथ में उद्धत की थी। कनाडा के उत्तर में अलास्का नाम का एक क्षेत्र है। पुराणों अनुसार कुबेर की नगरी अलकापुरी हिमालय के उत्तर में थी। यह अलास्का अलका से ही प्रेरित जान पड़ता है। अमेरिका में शिव, गणेश, नरसिंह आदि देवताओं की मूर्तियां तथा शिलालेख आदि का पाया जाने इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि प्रचीनकाल में अमेरिका में भारतीय लोगों का निवास था। इसके बारे में विस्तार से वर्णन आपको भिक्षु चमनलाल द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका’ में चित्रों सहित मिलेगा। दक्षिण अमेरिका में उरुग्वे करने एक क्षेत्र विशेष है जो विष्णु के एक नाम उरुगाव से प्रेरित है और इसी तरह ग्वाटेमाल को गौतमालय का अपभ्रंष माना जाता है। ब्यूनस आयरिश वास्तव में भुवनेश्वर से प्रेरित है। अर्जेंटीना को अर्जुनस्थान का अपभ्रंष माना जाता है। पांडवों का स्थापति मय दानव था। विश्वकर्मा के साथ मिलकर इसने द्वारिका के निर्माण में सहयोग दिया था। इसी ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। कहते हैं कि अमेरिका के प्रचीन खंडहर उसी के द्वारा निर्मित हैं। यही माया सभ्यता का जनक माना जाता है। इस सभ्यता का प्राचीन ग्रंथ है पोपोल वूह (popol vuh)। पोपोल वूह में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की जो स्थिति वर्णित है कुछ कुछ ऐसी ही वेदों भी उल्लेखित है। उसी पोपोल वूह ग्रन्थ में अरण्यवासी यानि असुरों से देवों के संघर्ष का वर्णन उसी प्रकार से मिलता है जैसे कि वेदों में मिलता है।