King Maan Singh

भारत पर विशाल आक्रमण करने केलिए, गजनवी की तरह ही भारत को लूटने के लिए काबुल के हकीम खान ने तुरान के शाशक अब्दुल्लाह से संधि कर ली ।

जून 1581 ईसवी में राजा मानसिंह आमेर अपने कच्छवाहा राजपूतों की एक विशाल सेना रूपी विजय वाहिनी लेकर काबुल के विद्रोही मिर्जा हकीम के विरुद्ध सिंधु नदी के उस पार पेशावर के लिए रवाना हुए।

इस अवसर पर राजा मानसिंह की सेना को अटक नदी (सिंधु नदी) को पार कर दूसरी तरफ जाना था, लेकिन कच्छवाहा राजपूत सैनिक अटक के उस पार जाने में संकोच व आनाकानी करने लगे। उनका मत था कि उस युग में भारत के बाहर जाना धर्म विरुद्ध माना जाता था।

उक्त अवसर पर मान सिंह ने अपने सैनिकों को समझाया और उनका संदेश दूर किया।

राजा मानसिंह इस अवसर पर कहते हैं कि –

सबै भूमि गोपाल की , या में अटक कहां?
जा के मन में अटक है, सोई अटक रहा।

तुरान देश में वर्तमान में जो देश आते है, उनका नाम भी जान लीजिए,

तुर्की, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज्जकिस्तान, आदि बड़े देश आते है, इनके साथ ईरान भी हो लिया, काबुल अफगानिस्तान था ही, वर्तमान बलूचिस्तान, जो पाकिस्तान का लगभग 70% है, वह भी भारत पर आक्रमण को तैयार था, वर्तमान पाकिस्तान का साथ तो निश्चित था ही,

और उस समय मुस्लिम आक्रमणकारियों की जनसंख्या का अनुपात राजपूत वीरो से बहुत ज्यादा था,

अनुपात देखे, तो भारत के एक एक सैनिक को मारने के लिए 150-150 मुसलमान थे का अनुपात था 1 राजपूत v/s 150 मुसलमान, ऐसे भयंकर आक्रमण को मानसिंहः जी ने रौका था, अगर मेवाड़ के चक्कर मे मानसिंहः रह जाते, तो ना तो मेवाड़ बचता, ओर ना भारत !!

ओर भारत मे राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, बिहार, गुजरात के मुसलमान और इनके साथ होते सो अलग, जब मानसिंहः जी ने यह खबर सुनी, तो वह तुरंत अफगानिस्तान के लिए रवाना हुए

ओर उन्होंने तुर्की, अफगानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान, कज्जकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान उज्बेकिस्तान जैसे देशों को परास्त किया । यह उस समय मिलकर पांच देश बनते थे इन्ही देशों का झंडा छीनकर जयपुर घराने का पंचरंगा ध्वज बना है,

तुर्की तक तो विजय ना किसी राजा ने पिछले 1000 सालों में प्राप्त की – ना ऐसा प्रयास कोई कर पाया, वो किया आमेर नरेश ने,

मालवा के शेरखान फौलादी को परास्त किया, इख्तियार उल मुल्क को परास्त किया, पटना के मुसलमान शासक को मारा, सिंध लाहौर तथा पंजाब से पठानों को भगाया, बंगाल तथा उड़ीसा के मुसलमान राजाओ पर विजय प्राप्त की,

झारखंड में आजकल जो साहिबगंज कहा जाता है, वह राजा मानसिंहः जी ने ही बसाया था, उसका नाम पहले “राजमहल” हुआ करता था, जो बंगाल की राजधानी हुआ करती थी, उसके बाद अकबर के बेटे जहांगीर ने राजधानी वहां से शिफ्ट कर ढाका बनाई थी, राजमहल पर भी मुसलमानो का अधिकार हो गया, ओर उसका नाम बदलकर साहिबगंज कर दिया, झारखंड के राजमहल (साहिबगंज) में मानसिंहः जी का बनाया हुआ किला आज लगभग पूरी तरह मिट चुका है,

मानसिंहः जी की वीरता का पूरा वर्णन लिखना संभव ही नहीं है, पूरा क्या अधूरा का आधा भी नहीं लिखा गया है,

महाराज मानसिंहः जी आमेर महाधर्नुधर दिग्विजयी राजा थे, उनके स्मृतिचिन्ह इस संसार मे चिरकाल तक बने रहेंगे, दान, दासा, नरु, किशना, हरपाल, ईश्वरदास जैसे कवियों को उन्होंने एक एक करोड़ रुपया उस समय दान दिया था, उनके काल मे छापा चारण जैसे उनके दास 100-100 हाथियों के स्वामी हो गए थे, मान के गौदान की सम्पूर्ण संख्या 1 लाख थी, अपनी आयु के 44 साल तो उन्होंने युद्ध मे ही बिताएं, कई बार तो उन्होंने एक एक लाख की सेना वाले मुसलमान राजाओ को परास्त किया, जिसमे एक भी जिंदा वापस नही जा सका था, शीलामाता आदि का सम्मान, ओर उद्धार करने में भी उनका नाम अमर है, देश के अधिकांश शहर, गांव, कस्वे, तालाब आदि उन्ही के नाम पर है, बंगाल में मानभूमि , वीरभूमि, सिंहभूमि, आमेर में मानसागर, मानसरोवर, मानतालाब, मानकुण्ड, काशी में मानघाट ओर मानमंदिर, मानगांव, काबुल में माननगर, मानपुरा, अन्यत्र मान-देवीमंदिर, मानबाग, मानदरवाजा, मानमहल, मानझरोखा, ओर मानशस्त्र आदि है !! इसके अलावा शीलामाता का मंदिर – गोविन्ददेव जी मंदिर, कालामहादेव मंदिर, हर्षनाथभैरव मंदिर, आमेरमहल, जगतशिरोमणि मंदिर तथा वहां के किले, 8 परकोटे, जयगढ़, सांगानेर की नींव, पुष्कर, अजमेर, दिल्ली, आगरा के किलो की मरम्मत, मथुरा, वृंदावन, काशी, पटना ओर हरिद्वार के घाटों का निर्माण भी मानसिंहः जी ने ही करवाया है !!

● राजा मान सिंह ने उड़ीसा में #जगन्नाथ_मंदिर समेत 7000 मंदिरों से ज़्यादा मंदिरों की रक्षा की ।

● राजा मान ने हिंदुओं का मुक्ति स्थल #गयाजी की न केवल रक्षा की, बल्कि वहां कई मंदिर बनवाये भी ।

●राजा मान ने एशिया की सबसे बड़ी शक्ति अफगान मूलवंश बंगाल सल्तनत का नाश किया

● राजा मान ने गुजरात को 300 साल बाद अफगान शासकों से आजादी दिलवाई

● राजा मान ने द्वारिकाधीश मंदिर को मस्जिद से पुनः मंदिर बनाया

● तुलसीदास का सरंक्षक राजा मान था । उन्ही के संरक्षण के कारण तुलसीदास रामायण लिखने में सफल हो पाए ।

● राजा मान ने काशी में हजारो मंदिरो का निर्माण करवाया

● राजा मान ने मीराबाई को पूरा सम्मान दिया, उनका भव्य मंदिर अपने ही राज्य में बनवाया

● राजा मान ने अफगानिस्तान को तबाह करके रख दिया, जहां से पिछले 500 वर्षों से आक्रमण हो रहे थे ।

● राजा मान ने ही पूर्वी UP से लेकर बिहार, झारखंड की रक्षा की

● राजा मान ने ही सोमनाथ मंदिर का दुबारा उद्धार किया था, हालांकि बाद में औरंगजेब ने इसे तोड़ डाला

●राजा मान ने ही हिंदुओ पर लगा हुआ 300 वर्ष से चल रहा जजिया कर हटवाया

● राजा मान ने ही मथुरा का उद्धार किया ।।

● राजा मान की प्रजा ही सबसे सुखी सुरक्षित और सम्पन्न प्रजा थी ।।

लेकिन राजा मान के सम्मान में सबके मुँह में दही जम जाता है, क्यो की उन्होंने इतना काम किया, की पिछले 500 वर्षों में उनके जोड़ का योद्धा ओर धर्मरक्षक आज तक पैदा नही हुआ ।।

लेकिन जब मैने मानसिंह की तारीफ शुरू की, तो एक सज्जन आकर बोलने लगे, राजा मानसिंह के कारण हम अपने सभी राजाओ का सम्मान दाव पर नही लगा सकते, तो इसका अच्छा अर्थ मुझे समझ आया, सबका सम्मान बचाने के लिए राजा मानसिंह को बलि का बकरा बना दो, ओर उनका अपमान करो ? उनके अपमान से सबकी कमियां ढक जाएगी …

जबकि हक़ीक़त यह है, की 1576 ईस्वी तक, जो हल्दीघाटी युद्धकाल समय था, उस समय तक मुगल तो मुट्ठीभर थे, भारत मे अफगान वंश के मुस्लिम कब्जा करके बैठे थे । मुगल तो यहां 100 साल भी ढंग से राज नही कर पाए ….

इतिहास का विश्लेषण कीजिये, ऐसा न हो कहीं हम कर्नल टॉड ओर चाटुकार इतिहासकारो का इतिहास पढ़कर भारत के वीर पुत्रो का अपमान कर रहे हो………………

भारत के सनातन धर्म रक्षक, महापराक्रमी, रघुकुल तिलक आमेर नरेश महाराज मानसिंह जी कछवाहा

बहुत छुपाया शोर्य तेरा झुठे इतिहासकारों ने।
बहुत बताया गलत तुम्हें इन बिके हुए गद्दारों ने।
राजा मान सिंह गद्दार नही बस झुठा भर्म फैलाया था।
था समझौता मजबुरी का पर बुद्धि से धर्म बचाया था।
गद्दारों की हार मान सिंह यु उनका गुस्सा फुटा था
कितने मंदिर हुए सुरक्षित ना फेर जनेऊ टुटा था।

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गजनी अफगानिस्तान-यदुवंशीभाटियों के पूर्वजो ने यहां तीनहजार साल राज किया

गजनी अफगानिस्तान-यदुवंशी, भाटियों के पूर्वजो ने यहां तीनहजार साल राज किया

नवरात्रि के दिन चल रहे हैं, देवी स्वरूपों के दर्शन करते-करते, देश-दुनिया के संग्रहालयों में रखी देवी मूर्तियों के विभिन्न स्वरूप भी ध्यान आकर्षित करते हैं, कितने कुशल कारीगर थे और कितनी श्रद्धा भक्ति से उन्हें मंदिरों में स्थापित करा गया था, आज खण्डित होकर भी उनमें सम्मोहन शक्ति मौजूद है। ऐसी ही देवी की एक खण्डित मूर्ति, काबुल संग्रहालय की तस्वीरों में देखने को मिलती है जो 80 के दशक में गजनी शहर के पास उत्खनन में मिली थी। इस मूर्ति के प्रति जैसलमेरी होने से आकर्षण और भी बढ़ जाता है क्योंकि जैसलमेर के इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान के गजनी का महत्वपूर्ण स्थान है। यदुवंश की पौराणिक राजधानियों से ऐतिहासिक राजधानियों का जुड़ाव इस गजनी शहर में ही होता है, जैसलमेर में मान्यता है की यदुवंशी राजा गज ने वहाँ दुर्ग की स्थापना करी थी और उसे यदुवंश की चौथी राजधानी बनाकर गजनी नाम दिया था , जिसे बाद में खुरासान(ख़्वारिज्म) और रुम(बायजेंटियम) के संयुक्त मोर्चे ने जीत लिया था। आज भी 10वी सदी से पहले के ऐतिहासिक साक्ष्यों की कमी के कारण कुछ इतिहासकार गजनी से जैसलमेर के जुड़ाव को किंवदंती मानकर अस्वीकार कर देते हैं। लेकिन एक सदी पूर्व तक जैसलमेर के विभिन्न समाजों और व्यापार के सम्बन्ध उस शहर से थे, जैसलमेर से बुखारा-मध्य एशिया जाने वाले प्रमुख व्यापारिक मार्ग पर यह महत्वपूर्ण पड़ाव था। विभिन्न प्राचीन पुस्तकों और आधुनिक पुरातात्विक खोजों से गजनी के इतिहास के कुछ रोचक तथ्यों के बारे में जानकारी मिलती है जो इस प्रकार है-

  1. गजनी का सबसे प्राचीन उल्लेख यूनानी(ग्रीक) भूगोलविद पटोल्मी द्वारा दूसरी ईस्वी शताब्दी में अपनी किताब जीयोग्राफिया में मिलता है, जहाँ इसका यूनानी भाषा मे नाम ग़जका लिखा गया है।
  2. ईस्वी वर्ष 629 में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनत्सांग इस शहर में रुका था, अपने आलेखों में उसने चीनी भाषा में इसका नाम हो-सी-ना लिखा है, जो रेशम मार्ग पर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था।
  3. ईस्वी वर्ष 950 में गजनी का उल्लेख भारत के महत्वपूर्ण स्मृद्ध व्यापारिक केंद्र और बिना बगीचों वाले खूबसूरत शहर के रूप में, बग़दाद के यात्री अबू ईशाक ईब्राहिम ईश्तकारी ने अपनी किताब, किताब-अल-मसलिक-वल-मामलिक में करा है।
  4. ईस्वी वर्ष 988 में अरबी लेखक इब्न हवकाल ने अपनी किताब सूरत-अल-अर्ज में वर्ष 961 से 966 ईस्वी तक गजनी पर तुर्क योद्धा अल्प्टिजिन के घेरे व हमले के बाद विध्वंस का जिक्र करा है, लेकिन फिर भी यह व्यापार का मुख्य केंद्र था और तुर्क समुदाय का मुख्य गढ़ बन चुका था।
  5. उन्ही वर्षों में लिखी फारसी किताब हुदूद-अल-आलम में ग़ज़नी का उल्लेख मिलता है जो उस वक्त तक खोरासान के दक्षिण-पूर्व में सीमांत बामियान प्रान्त के अधीन था और महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था इसका उपनाम फ़ूर्दत-अल-हिन्द था जिसका मतलब भारत का व्यापारिक केंद्र होता है। इस किताब में इसे ग़जना नाम से उल्लेखित करा गया है और इस किताब के लेखन के समय अल्पतजिन की मृत्यु के बाद उसके दास सबुक्तजिन को गद्दी पर बैठाया जा चुका था।
  6. इसके बाद सबुक्तजिन के उत्तराधिकारी, महमूद के शासनकाल में गजनी एक शक्तिशाली साम्राज्य की राजधानी के रूप में उभरा, जिसका उल्लेख महमूद के दरबारियों की किताबों में उल्लेखित हैं, विशेषकर अल-बेरुनी की किताब-उल-हिन्द में।
  7. लेकिन गजनी का वह वैभव एक सदी में ही खत्म होने लगा जब गुर के शासक हुसैन जहाँसोज ने ईस्वी वर्ष 1151 में शहर को आग के हवाले कर दिया।
  8. लेकिन एक बार फिर से यह नगर भारत के व्यापारियों से गुलजार हो गया और इसकी स्मृद्धि ने ईस्वी वर्ष 1221 में मंगोलों के हमले को प्रेरित करा, जिसका उल्लेख अरबी लेखक याकूत-अल-हमवी की किताब, किताब मुज्ज्म-अल-बुलदान में मिलता है।
  9. ईस्वी वर्ष 1332 में इब्नबतूता के समय यह शहर भूतहा खण्डहर बन चुका था और यहाँ रहने वाले कुछ हजार लोग भी सर्दियों में इसे छोड़कर कंधार चले जाते थे।
  10. ईस्वी वर्ष 1504 में बाबरनामा में इसका उल्लेख मिलता है, जहाँ बाबर आश्चर्य व्यक्त करता है कि रेशम मार्ग के इस महत्वपूर्ण पड़ाव को हिंदुस्तान और खुरासान के राजाओं ने कभी राजधानी क्यों नहीं बनाया, शायद उसे इसके इतिहास की सही जानकारी नहीं थी।
  11. यही आश्चर्य ईस्वी वर्ष 1832 में इसे पहली बार देखने वाले यूरोपीय यात्री चार्ल्स मैसन ने भी अपने यात्रा विवरण में व्यक्त करा है।
  12. ईस्वी वर्ष 1839 में सदियों से जीर्ण शीर्ण प्राचीन दुर्ग, खण्डहरों और इमारतों को अंग्रेजी फौज ने प्रथम अंग्रेज-अफ़ग़ान युद्धों में गोला बारूद से काफी नुकसान पहुँचाया था।
  13. आधुनिक काल मे 1960 से 2003 तक ईटली के पुरातत्वविदों की टीम ने जियोवानी वेरार्दी के निर्देशन में उत्खनन कार्य करे और नगर के प्राचीन इतिहास विशेषकर 6ठी सदी काल के कुछ अवशेष खोज निकाले, जिनमें प्राचीन दुर्ग के पास सरदार टेपे नाम के टीले से ईसा की दूसरी शताब्दी काल में कुषाण काल में बने महाराज कनिक विहार नाम के बौद्ध विहार और स्तूप के अवशेष, 15 मीटर लम्बी बुद्ध की लेटी मूर्ति के अवशेष, विभिन्न मूर्तियाँ, एक अन्य स्थान पर शिव मंदिर के अवशेष, दुर्गा जी की विशाल मूर्ति का सिर और महिषासुर की मूर्ति के अवशेष मिले।

इन विवरणों से यह स्पष्ट है कि गजनी ईसा की दूसरी शताब्दी में कुषाण काल में स्थापित हो चुका था और इसकी ख्याति महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र के रूप में यूनान तक पहुँच चुकी थी। जैसलमेर के इतिहास पर शोध करने वाले इतिहासकारों से विनती है गजनी के दूसरी शताब्दी से नौंवी शताब्दी तक के इतिहास को प्राचीन फ़ारसी, अरबी, चीनी, बाइजेंटाइन, आर्मेनियन, तुर्की ग्रन्थों और विदेशी पुरातत्वविदों के सहयोग से प्राप्त कर नई जानकारियों से यदुवंश के इतिहास की गुमशुदा कड़ियों पर खोजबीन करने की।

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Rajput history and savior of Bharat

पन्ना धाय से कम न था रानी बाघेली का बलिदान

भारतीय इतिहास में खासकर राजस्थान के इतिहास में बलिदानों की गौरव गाथाओं की एक लम्बी श्रंखला है इन्ही गाथाओं में आपने मेवाड़ राज्य की स्वामिभक्त पन्ना धाय का नाम तो जरुर सुना होगा जिसने अपने दूध पिते पुत्र का बलिदान देकर चितौड़ के राजकुमार को हत्या होने से बचा लिया था | ठीक इसी तरह राजस्थान के मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के नवजात राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब से बचाने के लिए मारवाड़ राज्य के बलुन्दा ठिकाने की रानी बाघेली ने अपनी नवजात दूध पीती राजकुमारी का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह के जीवन की रक्षा की व राजकुमार अजीतसिंह का औरंगजेब के आतंक के बावजूद लालन पालन किया, पर पन्नाधाय के विपरीत रानी बाघेली के इस बलिदान को इतिहासकारों ने अपनी कृतियों में जगह तो दी है पर रानी बाघेली के त्याग और बलिदान व जोधपुर राज्य के उतराधिकारी की रक्षा करने का वो एतिहासिक और साहित्यक सम्मान नहीं मिला जिस तरह पन्ना धाय को | रानी बाघेली पर लिखने के मामले में इतिहासकारों ने कंजूसी बरती है और यही कारण है कि रानी के इस अदम्य त्याग और बलिदान से देश का आमजन अनभिज्ञ है |

28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया | इन दोनों नवजात राजकुमारों व रानियों को लेकर जोधपुर के सरदार अपने दलबल के साथ अप्रेल 1679 में लाहौर से दिल्ली पहुंचे | तब तक औरंगजेब ने कूटनीति से पूरे मारवाड़ राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और जगह जगह मुग़ल चौकियां स्थापित कर दी और राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर राज्य के उतराधिकारी के तौर पर मान्यता देने में आनाकानी करने लगा |

तब जोधपुर के सरदार दुर्गादास राठौड़,बलुन्दा के ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास आदि ने औरंगजेब के षड्यंत्र को भांप लिया उन्होंने शिशु राजकुमार को जल्द जल्द से दिल्ली से बाहर निकलकर मारवाड़ पहुँचाने का निर्णय लिया पर औरंगजेब ने उनके चारों और कड़े पहरे बिठा रखे थे ऐसी परिस्थितियों में शिशु राजकुमार को दिल्ली से बाहर निकलना बहुत दुरूह कार्य था | उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |

छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |

यही राजकुमार अजीतसिंह बड़े होकर जोधपुर का महाराजा बने|इस तरह रानी बाघेली द्वारा अपनी कोख सूनी कर राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदलकर जोधपुर राज्य के उतराधिकारी को सुरक्षित बचा कर जोधपुर राज्य में वही भूमिका अदा की जो पन्ना धाय ने मेवाड़ राज्य के उतराधिकारी उदयसिंह को बचाने में की थी | हम कल्पना कर सकते है कि बलुन्दा ठिकाने की वह रानी बाघेली उस वक्त की नजाकत को देख अपनी पुत्री का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब के चुंगल से बचाकर मारवाड़ नहीं पहुंचाती तो मारवाड़ का आज इतिहास क्या होता?

नमन है भारतभूमि की इस वीरांगना रानी बाघेली जी और इनके इस अद्भुत त्याग व बलिदान को

दुश्मनों का काल रघुवंशी सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार

वीरों और योद्धाओं की जाति गुर्जर प्रतिहार रघुवंश शिरोमणि श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के वंशज हैं. इस वंश में एक से एक महाभट योद्धा और पराक्रमी शासक हुए जिसकी जितनी चर्चा और प्रशंसा की जाये कम है. इसी गौरवशाली वंश में सम्राट मिहिर भोज का जन्म हुआ था. उन्होंने ८३६ ईस्वी से ८८५ ईस्वी तक कभी कन्नौज तो कभी उज्जैन से शासन किया. भले ही वामपंथी इतिहासकारों ने मिहिर भोज के इतिहास को काट देने की साजिश की है, मिहिर भोज क्या उन सभी महान भारतीय सम्राटों और योद्धाओं को भारतीय इतिहास से गायब कर दिया है जिन्होंने अरबी, तुर्की मुस्लिम आक्रमणकारियों को धूल चटाया और उन्हें अरब तक या भारतवर्ष की सीमा से बाहर खदेड़ दिया, लेकिन स्कंद पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज की वीरता, शौर्य और पराक्रम के बारे में विस्तार से वर्णन है.
मिहिर भोज बचपन से ही वीर बहादुर माने जाते थे. उनका जन्म विक्रम संवत 873 को हुआ था. सम्राट मिहिर भोज की पत्नी का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था जो भाटी राजपूत वंश की थी. मिहिर भोज की वीरता के किस्से पूरी दुनिया मे मशहूर हुए. कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगिणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है.

राष्ट्र और धर्म की रक्षा केलिए पूर्ण समर्पित

प्रारम्भ से लेकर अंत तक उनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा. उन्होंने अपना जीवन अश्व के पीठ पर रण में ही बिताया. अरबी, तुर्की मुसलमानो ने अपने इतिहास में उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन कहा है. मिहिर भोज के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मुसलमानो को केवल 5 गुफाओं (क्षेत्रों) तक सीमित कर दिया था. यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध मे केवल जीत हासिल करते थे और वहां की प्रजा को मुसलमान बना देते थे पर भारत के इस वीर क्षत्रिय सम्राट मिहिर भोज के नाम से अरबी, तुर्की आक्रान्ताओं के दिल दहल जाते थे.
उन्होंने करीब नौ लाख की केन्द्रीय अश्वारोही सेना गठित की. सामंतों का दमन कर उन्हें उनका मूल कर्तव्य याद दिलाया और अपने पूर्वज नागभट्ट प्रथम व द्वितीय की आक्रामक नीति को और भीषण रूप से लागू कर उन्होंने सिंध पर आक्रमण किया और मुस्लिम आक्रमणकारियों का भयानक संहार किया.

परंतु स्थानीय हिंदू आबादी के नरसंहार की धमकी और मुल्तान के मंदिर और पुजारियों के कत्ल की भावनात्मक कपटजाल के कारण अरबों को कर देने की शर्त पर जीवन दान दे दिया. उन्होंने हिंदू मानकों के अनुरूप ऐसा सुसंगठित प्रशासन स्थापित किया कि उनके राज में चोरी डकैती और अपराध नहीं होते थे. संपन्नता इतनी ज्यादा थी कि आम नागरिक भी दैनिक जीवन में खर्च के लिये चांदी और सोने की मुद्रायें प्रयोग करते थे.

महान प्रशासक और कूटनीतिज्ञ

अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिला-उत-तारिका में लिखा है कि सम्राट मिहिर भोज के पास उंटों, घोड़ों और हाथियों की बड़ी विशाल और सर्वश्रेष्ठ सेना है. उनके राज्य में व्यापार सोने और चांदी के सिक्कों से होता है. इनके राज्य में चोरों डाकुओं का भय नहीं होता था.

मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कर्नाटक, आंध्रप्रदेश की सीमा तक, पूर्व में असम, उत्तरी बंगाल से लेकर पश्चिम में काबुल तक विस्तृत थी. 915 ईस्वी में भारत भ्रमण पर आये बगदाद के इतिहासकार अल मसूदी ने भी अपनी किताब मिराजुल-जहाब में लिखा कि सम्राट मिहिर भोज के पास महाशक्तिशाली, महापराक्रमी सेना है. इस सेना की संख्या चारों दिशाओं में लाखो में बताई गई है.
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार मिहिर भोज की एक सेना कनकपाल परमार के नेतृत्व में गढ़वाल नेपाल के राघवदेव की तिब्बत के आक्रमणों से रक्षा करती थी. इसी प्रकार एक सेना अल्कान देव के नेतृत्व में पंजाब के गुर्जराज नगर के समीप नियुक्त थी जो काबुल के ललियाशाही राजाओं को तुर्किस्तान की तरफ से होने वाले आक्रमणों से रक्षा करती थी. इसकी पश्चिम की सेना मुलतान के मुसलमान शासक पर नियंत्रण करती थी. परंतु मिहिर भोज का वह वास्तविक कार्य अभी भी शेष था जिसे मुस्लिम और वामपंथी इतिहासकार छिपाते आये हैं.

जबरन धर्मान्तरित हिन्दुओं का पुनरोद्धार
मिहिर भोज का ध्यान उस समस्या पर गया जिसके हल के बारे में उनकी सोच अपने समय से 1000 वर्ष आगे की थी. यह समस्या थी भारत में अरबों के अभियान के फलस्वरूप बलात धर्मांतरित हुए नवमुसलमानों की बडी संख्या. अपने ही बंधुओं से तिरस्कृत ये मुसलमान अपने ही देश में विदेशी अरब बनते जा रहे थे और अरबी तुर्की आक्रमण में मुस्लिम आक्रांताओं का साथ देने के लिये विवश थे. इस्लाम के फैलाव की इस प्रवृत्ति से पूर्णपरिचित मिहिर भोज ने इसका कठोर स्थाई हल निकाला उनकी दृढ़ता के आगे ब्राह्मणों की कट्टरता इसबार आवाज नहीं उठा सकी जैसा की पहले हुआ था. उन्होंने जबरन धर्मांतरित हिंदुओं को पुनः हिन्दू धर्म में वापसी का विकल्प दिया.

अधिकांश नवमुस्लिमों ने स्वेच्छा से ही “चंद्रायण व्रत” द्वारा प्रायश्चित्त कर वापस हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया, यहाँ तक कि बलत्कृत और अपह्रत स्त्रियों को भी चंद्रायण व्रत द्वारा पूर्ण पवित्र घोषित कर उनका सम्मान लौटाया गया. उनके इस सफल प्रयास से भारत अगले 150 वर्षों तक “बाहरी और भीतरी” इस्लामी आक्रमण से मुक्त रहा. दुर्भाग्य से परवर्ती हिन्दू राजाओं ने इनके इस कुशल नीति का अनुसरण नहीं किया जिसके कारण भारत का इस्लामीकरण होता चला गया.

भगवान विष्णु और महादेव के अनन्य भक्त
सम्राट मिहिर भोज भगवान विष्णु और महादेव के परमभक्त थे. उन्होंने आदि वराह की उपाधि धारण की थी. वह उज्जैन में स्थापित भगवान महाकाल के भी अनन्य भक्त थे. उनकी सेना जय महादेव, जय विष्णु, जय महाकाल की ललकार के साथ रणक्षेत्र में दुश्मन का खात्मा कर देती थी. उन्होंने कई भवन और मन्दिर का निर्माण करवाया था. राजधानी कन्नौज में 7 किले और दस हजार मंदिर थे. उनके द्वारा बनाये गये मन्दिर आज भी मौजूद है जैसे ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर, ग्वालियर का तेली का मन्दिर, गुजरात के त्रिनेत्रेश्वर मन्दिर, चम्बल का बटेश्वर मंदिर आदि (फोटो में).

मिहिर भोज के समय अरब के हमलावरों ने भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने की कई नाकाम कोशिश की. लेकिन वह विफल रहे. साहस, शौर्य, पराक्रम वीरता और संस्कृति के रक्षक सम्राट मिहिर भोज जीवन के अंतिम वर्षों में अपने बेटे महेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यास ले लिया था. मिहिर भोज का स्वर्गवास 888 ईस्वी को 72 वर्ष की आयु में हुआ था. भारत के इतिहास में मिहिर भोज का नाम सनातन धर्म और राष्ट्र रक्षक के रूप में दर्ज है.

प्रमुख स्त्रोत:
श्रेण्य युग-आर . सी. मजूमदार
प्राचीन भारत का राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास-डॉ. विमलचंद्र पांडे
प्रतिहारों का मूल इतिहास लेखक-देवी सिंह मंडावा
विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का इतिहास लेखक-डा अनुपम सिंह
ग्वालियर अभिलेख आदि

Rajput and resistance against Muslims

सन् 1840 में काबुल में युद्ध में 8000 पठान मिलकर भी 1200 राजपूतो का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाये।
वही इतिहासकारो का कहना था की चित्तोड की तीसरी लड़ाई जो 8000 राजपूतो और 60000 मुगलो के मध्य हुयी थी वहा अगर राजपूत 15000 राजपूत होते तो अकबर भी जिंदा बचकर नहीं जाता।
इस युद्ध में 48000 सैनिक मारे गए थे जिसमे 8000
राजपूत और 40000 मुग़ल थे वही 10000 के करीब
घायल थे।
और दूसरी तरफ गिररी सुमेल की लड़ाई में 15000
राजपूत 80000 तुर्को से लडे थे, इस पर घबराकर शेर
शाह सूरी ने कहा था “मुट्टी भर बाजरे (मारवाड़)
की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत खो बैठता”
उस युद्ध से पहले जोधपुर महाराजा मालदेव जी नहीं गए
होते तो शेर शाह ये बोलने के लिए जीवित भी नही
रहता।
इस देश के इतिहासकारो ने और स्कूल कॉलेजो की
किताबो मे आजतक सिर्फ वो ही लडाई पढाई
जाती है जिसमे हम कमजोर रहे,
वरना बप्पा रावल और राणा सांगा जैसे योद्धाओ का नाम तक सुनकर मुगल की औरतो के गर्भ गिर जाया करते थे, रावत रत्न सिंह चुंडावत की रानी हाडा का त्यागपढाया नही गया जिसने अपना सिर काटकर दे दिया था।
पाली के आउवा के ठाकुर खुशहाल सिंह
को नही पढाया जाता, जिन्होंने एक अंग्रेज के अफसर का सिर काटकर किले पर लटका दिया था।
जिसकी याद मे आज भी वहां पर मेला लगता है। दिलीप सिंह जूदेव का नही पढ़ाया जाता जिन्होंने एक लाख आदिवासियों को फिर से हिन्दू बनाया था।
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर
महाराणा प्रतापसिंह
महाराजा रामशाह सिंह तोमर
वीर राजे शिवाजी
राजा विक्रमाद्तिया
वीर पृथ्वीराजसिंह चौहान
हमीर देव चौहान
भंजिदल जडेजा
राव चंद्रसेन
वीरमदेव मेड़ता
बाप्पा रावल
नागभट प्रतिहार(पढियार)
मिहिरभोज प्रतिहार(पढियार)
राणा सांगा
राणा कुम्भा
रानी दुर्गावती
रानी पद्मनी
रानी कर्मावती
भक्तिमति मीरा मेड़तनी
वीर जयमल मेड़तिया
कुँवर शालिवाहन सिंह तोमर
वीर छत्रशाल बुंदेला
दुर्गादास राठौर
कुँवर बलभद्र सिंह तोमर
मालदेव राठौर
महाराणा राजसिंह
विरमदेव सोनिगरा
राजा भोज
राजा हर्षवर्धन बैस
बन्दा सिंह बहादुर
इन जैसे महान योद्धाओं को नही पढ़ाया/बताया जाता है, जिनके नाम के स्मरण मात्र से ही शत्रुओं के शरीर में आज भी कंपकंपी शुरू हो जाती है।