कालगणना मित्रों आज मैं आपको मनुष्यों के समयसीमा और देवताओं के समयसीमा में अंतर बताने का प्रयास करूंगा। हालांकि इसका मेरे पास कोई शास्त्र प्रमाण नहीं है परन्तु शास्त्रों में वर्णित समय व हमारे द्वारा बोले गए संकल्प का आधार लेकर ही प्रयास किया है।
घंटा मिनट वैज्ञानिक समय है, इसलिए मैं इसी से शुरुआत करूँगा। जैसा कि आप जानते हैं, 60 सेकेंड का 1 मिनिट, 60 मिनिट का 1 घंटा होता है दिन और रात्रि को 24 घंटे में बांटा गया है। 3 घंटे का 1 प्रहर होता है इसलिए 4 प्रहर रात्रि के और 4 प्रहर दिन के होते हैं। 7 दिन को सप्ताह और 15 दिन को पक्ष बताया गया है। दो पक्ष का 1 माह और 12 माह का 1 वर्ष होता है। 360 वर्ष का 1 दिव्यवर्ष यानी देवताओं का एक वर्ष होता है।
जिस प्रकार 30 दिन को महीना कहते हैं 12 महीने को वर्ष कहते हैं उसी प्रकार 432000 वर्ष को कलियुग कहा गया। दो कलियुग मिलकर 1 द्वापरयुग होता है अर्थात द्वापर 864000 वर्ष का होता है। इसी प्रकार से 17280000 वर्ष का त्रेता युग और 3456000 वर्ष का सतयुग होता है।
कलियुग में मनुष्य की आयु प्रमाण 100 वर्ष और कद 7 फुट की होती है। द्वापरयुग में मनुष्य की आयु 1000 वर्ष और कद 14 फुट की होती है। त्रेता में मनुष्य की आयु 10000 वर्ष और कद 21 फुट की होती है। सतयुग में मनुष्य की आयु 100000 वर्ष और कद 28 फुट की बताई गई है।
भागवत कथा में आपने सुना होगा कि त्रेतायुग के सूर्यवंशी राजा रेवत अपनी कन्या का विवाह करना चाहते थे परंतु पृथ्वी में बहुत खोजने के बाद भी उन्हें अपनी कन्या के लिए योग्य पुरुष नहीं मिला जिस कारण वे अपनी कन्या को लेकर ब्रह्माजी के पास गए, उस समय ब्रह्माजी की सभा में वेदपाठ हो रहा था जिस कारण राजा रेवत की कुछ समय प्रतीक्षा करना पड़ा। जब राजा रेवत ब्रह्माजी के पास पहुंचे और अपनी समस्या बताई तब ब्रह्माजी ने बताया कि आप जहां से आये हो वहां अब आपका वंश ही समाप्त हो गया। क्योंकि अब वहां पर त्रेतायुग समाप्त होकर द्वापरयुग का अंतिम चरण चल रहा है। इस समय भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होकर लीलाएं कर रहे हैं। आप अब तुरंत पृथ्वी पर जाइये और श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम जी के साथ अपनी कन्या का विवाह करिए। तब राजा रेवत अपनी कन्या को लेकर पृथ्वी पर आए और बलराम जी के साथ रेवती जी का विवाह किया। उस समय बलराम जी 14 फुट के थे और रेवती जी 21 फुट की थीं तब बलराम जी ने अपने हल से रेवती जी को छोटा किया यानी 21 फुट से सीधे 14 फुट का बना दिया।
इसी प्रकार कलियुग की अपेक्षा द्वापर युग में मनुष्य का बल, तेज, गुण, स्मरण शक्ति आदि सब कुछ दो गुना ज्यादा होता है वैसे प्राकृति भी कलियुग की अपेक्षा द्वापरयुग में ज्यादा शुद्ध रहती है। भूमि भी दो गुना ज्यादा उपजाऊ होती है। इसी प्रकार द्वापर से दो गुना ज्यादा त्रेतायुग और त्रेता से दो गुना ज्यादा सतयुग की शक्तियों को समझें। इस तरह से जब क्रमशः सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग व्यतीत होता है तब उसे 1 चतुर्युगी कहते है। 71 चतुर्युगी जब व्यतीत होता है तब 1 मन्वंतर होता है। 14 मन्वंतर का 1 कल्प होता है। इस तरह से जब 14 मन्वन्तर बीत जाते हैं तब ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। पुनः 14 मन्वंतर बीतने पर ब्रह्मा जी की एक रात्रि पूरी होती है।
ब्राह्मण पूजा करते समय जो संकल्प पढ़ते हैं आइए अब उस पर गौर करें। @संकल्प के अनुसार@
इस समय जो कल्प चल रहा है उसका नाम श्वेतवराह कल्प उसमे भी यह ब्रह्मा जी का द्वितीय परार्ध है अर्थात ब्रह्मा जी इस समय 51 वें वर्ष में प्रवेश कर चुके है और कौन सा मन्वंतर है तो 14 मन्वंतरों में यह 7 वां वैवस्वत मन्वंतर है, मन्वंतर एक पद है इस समय का द्रष्टा होता है उसे मनु कहा जाता है। तो विवश्वान सूर्य के पुत्र जो वैवश्वत है यही इस काल खंड के रक्षक हैं। तो 14 मन्वंतरों में अलग अलग 14 मनु निर्धारित किये गए हैं। अभी जो है ये 7 वें वैवस्वतमनु हैं। तो इस मन्वंतर में यह कौन सा युग है। क्योंकि 1 मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होते हैं तो अश्टाविंशित्त मे युगे कलियुगे कलि प्रथम चरणे। यह 28 वां चतुर्युगी है जिसमे सतयुग त्रेता द्वापर बीत गया अभी कलियुग चल रहा है वह भी कलियुग का यह प्रथम चरण है। अभी कलियुग व्यतीत हुए 5127 वर्ष पूर्ण हो गया।
विक्रम संवत 2078 के चैत्रमास शुक्लपक्ष प्रतिपदा से 5128वां वर्ष शुरू हो गया। मनु के ही तरह इन्द्र भी मरणधर्मा है, इन्द्र की आयु 1 चतुर्युगी की होती है इस समय जो इन्द्र विराजमान हैं उनका नाम शक्र है। और कलियुग समाप्ति के बाद जब 29 चतुर्युगी प्रारम्भ होगा तब प्रह्लाद के पौत्र बलि को इंद्र पद में नियुक्त किया जाएगा।
पुनर्जन्म से सम्बंधित चालीस प्रश्नों को उत्तर सहित पढ़े?????
(1) प्रश्न :- पुनर्जन्म किसको कहते हैं ?
उत्तर :- जब जीवात्मा एक शरीर का त्याग करके किसी दूसरे शरीर में जाती है तो इस बार बार जन्म लेने की क्रिया को पुनर्जन्म कहते हैं ।
(2) प्रश्न :- पुनर्जन्म क्यों होता है ?
उत्तर :- जब एक जन्म के अच्छे बुरे कर्मों के फल अधुरे रह जाते हैं तो उनको भोगने के लिए दूसरे जन्म आवश्यक हैं ।
(3) प्रश्न :- अच्छे बुरे कर्मों का फल एक ही जन्म में क्यों नहीं मिल जाता ? एक में ही सब निपट जाये तो कितना अच्छा हो ?
उत्तर :- नहीं जब एक जन्म में कर्मों का फल शेष रह जाए तो उसे भोगने के लिए दूसरे जन्म अपेक्षित होते हैं ।
(4) प्रश्न :- पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है ?
उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिए जीवन और मृत्यु को समझना आवश्यक है । और जीवन मृत्यु को समझने के लिए शरीर को समझना आवश्यक है ।
(5) प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ?
उत्तर :- हमारे शरीर को निर्माण प्रकृति से हुआ है । जिसमें मूल प्रकृति ( सत्व रजस और तमस ) से प्रथम बुद्धि तत्व का निर्माण हुआ है । बुद्धि से अहंकार ( बुद्धि का आभामण्डल ) । अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चक्षु, जिह्वा, नासिका, त्वचा, श्रोत्र ), मन । पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) ।
शरीर की रचना को दो भागों में बाँटा जाता है ( सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर ) ।
(6) प्रश्न :- सूक्ष्म शरीर किसको बोलते हैं ?
उत्तर :- सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ । ये सूक्ष्म शरीर आत्मा को सृष्टि के आरम्भ में जो मिलता है वही एक ही सूक्ष्म शरीर सृष्टि के अंत तक उस आत्मा के साथ पूरे एक सृष्टि काल ( ४३२००००००० वर्ष ) तक चलता है । और यदि बीच में ही किसी जन्म में कहीं आत्मा का मोक्ष हो जाए तो ये सूक्ष्म शरीर भी प्रकृति में वहीं लीन हो जायेगा ।
(7) प्रश्न :- स्थूल शरीर किसको कहते हैं ?
उत्तर :- पंच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) , ये समस्त पंचभौतिक बाहरी शरीर ।
(8) प्रश्न :- जन्म क्या होता है ?
उत्तर :- जीवात्मा का अपने करणों ( सूक्ष्म शरीर ) के साथ किसी पंचभौतिक शरीर में आ जाना ही जन्म कहलाता है ।
(9) प्रश्न :- मृत्यु क्या होती है ?
उत्तर :- जब जीवात्मा का अपने पंचभौतिक स्थूल शरीर से वियोग हो जाता है, तो उसे ही मृत्यु कहा जाता है । परन्तु मृत्यु केवल सथूल शरीर की होती है , सूक्ष्म शरीर की नहीं । सूक्ष्म शरीर भी छूट गया तो वह मोक्ष कहलाएगा मृत्यु नहीं । मृत्यु केवल शरीर बदलने की प्रक्रिया है, जैसे मनुष्य कपड़े बदलता है । वैसे ही आत्मा शरीर भी बदलता है ।
(10) प्रश्न :- मृत्यु होती ही क्यों है ?
उत्तर :- जैसे किसी एक वस्तु का निरन्तर प्रयोग करते रहने से उस वस्तु का सामर्थ्य घट जाता है, और उस वस्तु को बदलना आवश्यक हो जाता है, ठीक वैसे ही एक शरीर का सामर्थ्य भी घट जाता है और इन्द्रियाँ निर्बल हो जाती हैं । जिस कारण उस शरीर को बदलने की प्रक्रिया का नाम ही मृत्यु है ।
(11) प्रश्न :- मृत्यु न होती तो क्या होता ?
उत्तर :- तो बहुत अव्यवस्था होती । पृथ्वी की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती । और यहाँ पैर धरने का भी स्थान न होता ।
(12) प्रश्न :- क्या मृत्यु होना बुरी बात है ?
उत्तर :- नहीं, मृत्यु होना कोई बुरी बात नहीं ये तो एक प्रक्रिया है शरीर परिवर्तन की ।
(13) प्रश्न :- यदि मृत्यु होना बुरी बात नहीं है तो लोग इससे इतना डरते क्यों हैं ?
उत्तर :- क्योंकि उनको मृत्यु के वैज्ञानिक स्वरूप की जानकारी नहीं है । वे अज्ञानी हैं । वे समझते हैं कि मृत्यु के समय बहुत कष्ट होता है । उन्होंने वेद, उपनिषद, या दर्शन को कभी पढ़ा नहीं वे ही अंधकार में पड़ते हैं और मृत्यु से पहले कई बार मरते हैं ।
(14) प्रश्न :- तो मृत्यु के समय कैसा लगता है ? थोड़ा सा तो बतायें ?
उत्तर :- जब आप बिस्तर में लेटे लेटे नींद में जाने लगते हैं तो आपको कैसा लगता है ?? ठीक वैसा ही मृत्यु की अवस्था में जाने में लगता है उसके बाद कुछ अनुभव नहीं होता । जब आपकी मृत्यु किसी हादसे से होती है तो उस समय आमको मूर्छा आने लगती है, आप ज्ञान शून्य होने लगते हैं जिससे की आपको कोई पीड़ा न हो । तो यही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है कि मृत्यु के समय मनुष्य ज्ञान शून्य होने लगता है और सुषुुप्तावस्था में जाने लगता है ।
(15) प्रश्न :- मृत्यु के डर को दूर करने के लिए क्या करें ?
उत्तर :- जब आप वैदिक आर्ष ग्रन्थ ( उपनिषद, दर्शन आदि ) का गम्भीरता से अध्ययन करके जीवन,मृत्यु, शरीर, आदि के विज्ञान को जानेंगे तो आपके अन्दर का, मृत्यु के प्रति भय मिटता चला जायेगा और दूसरा ये की योग मार्ग पर चलें तो स्वंय ही आपका अज्ञान कमतर होता जायेगा और मृत्यु भय दूर हो जायेगा । आप निडर हो जायेंगे । जैसे हमारे बलिदानियों की गाथायें आपने सुनी होंगी जो राष्ट्र की रक्षा के लिये बलिदान हो गये । तो आपको क्या लगता है कि क्या वो ऐसे ही एक दिन में बलिदान देने को तैय्यार हो गये थे ? नहीं उन्होने भी योगदर्शन, गीता, साँख्य, उपनिषद, वेद आदि पढ़कर ही निर्भयता को प्राप्त किया था । योग मार्ग को जीया था, अज्ञानता का नाश किया था ।
महाभारत के युद्ध में भी जब अर्जुन भीष्म, द्रोणादिकों की मृत्यु के भय से युद्ध की मंशा को त्याग बैठा था तो योगेश्वर कृष्ण ने भी तो अर्जुन को इसी सांख्य, योग, निष्काम कर्मों के सिद्धान्त के माध्यम से जीवन मृत्यु का ही तो रहस्य समझाया था और यह बताया कि शरीर तो मरणधर्मा है ही तो उसी शरीर विज्ञान को जानकर ही अर्जुन भयमुक्त हुआ । तो इसी कारण तो वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाल मनुष्य ही राष्ट्र के लिए अपना शीश कटा सकता है, वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता , प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करता है ।
(16) प्रश्न :- किन किन कारणों से पुनर्जन्म होता है ?
उत्तर :- आत्मा का स्वभाव है कर्म करना, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता । वे कर्म अच्छे करे या फिर बुरे, ये उसपर निर्भर है, पर कर्म करेगा अवश्य । तो ये कर्मों के कारण ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है ।
(17) प्रश्न :- पुनर्जन्म कब कब नहीं होता ?
उत्तर :- जब आत्मा का मोक्ष हो जाता है तब पुनर्जन्म नहीं होता है ।
(18) प्रश्न :- मोक्ष होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ?
उत्तर :- क्योंकि मोक्ष होने पर स्थूल शरीर तो पंचतत्वों में लीन हो ही जाता है, पर सूक्ष्म शरीर जो आत्मा के सबसे निकट होता है, वह भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है ।
(19) प्रश्न :- मोक्ष के बाद क्या कभी भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता ?
उत्तर :- मोक्ष की अवधि तक आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । उसके बाद होता है ।
(20) प्रश्न :- लेकिन मोक्ष तो सदा के लिए होता है, तो फिर मोक्ष की एक निश्चित अवधि कैसे हो सकती है ?
उत्तर :- सीमित कर्मों का कभी असीमित फल नहीं होता । यौगिक दिव्य कर्मों का फल हमें ईश्वरीय आनन्द के रूप में मिलता है, और जब ये मोक्ष की अवधि समाप्त होती है तो दुबारा से ये आत्मा शरीर धारण करती है ।
(21) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि कब तक होती है ?
उत्तर :- मोक्ष का समय ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है, जब तक आत्मा मुक्त अवस्था में रहती है ।
(22) प्रश्न :- मोक्ष की अवस्था में स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है या नहीं ?
उत्तर :- नहीं मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाता रहता है और ईश्वर के आनन्द में रहता है, बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे कि मछली पूरे समुद्र में रहती है । और जीव को किसी भी शरीर की आवश्यक्ता ही नहीं होती।
(23) प्रश्न :- मोक्ष के बाद आत्मा को शरीर कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तर :- सबसे पहला तो आत्मा को कल्प के आरम्भ ( सृष्टि आरम्भ ) में सूक्ष्म शरीर मिलता है फिर ईश्वरीय मार्ग और औषधियों की सहायता से प्रथम रूप में अमैथुनी जीव शरीर मिलता है, वो शरीर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य या विद्वान का होता है जो कि मोक्ष रूपी पुण्य को भोगने के बाद आत्मा को मिला है । जैसे इस वाली सृष्टि के आरम्भ में चारों ऋषि विद्वान ( वायु , आदित्य, अग्नि , अंगिरा ) को मिला जिनको वेद के ज्ञान से ईश्वर ने अलंकारित किया । क्योंकि ये ही वो पुण्य आत्मायें थीं जो मोक्ष की अवधि पूरी करके आई थीं ।
(24) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि पूरी करके आत्मा को मनुष्य शरीर ही मिलता है या जानवर का ?
उत्तर :- मनुष्य शरीर ही मिलता है ।
(25) प्रश्न :- क्यों केवल मनुष्य का ही शरीर क्यों मिलता है ? जानवर का क्यों नहीं ?
उत्तर :- क्योंकि मोक्ष को भोगने के बाद पुण्य कर्मों को तो भोग लिया , और इस मोक्ष की अवधि में पाप कोई किया ही नहीं तो फिर जानवर बनना सम्भव ही नहीं , तो रहा केवल मनुष्य जन्म जो कि कर्म शून्य आत्मा को मिल जाता है ।
(26) प्रश्न :- मोक्ष होने से पुनर्जन्म क्यों बन्द हो जाता है ?
उत्तर :- क्योंकि योगाभ्यास आदि साधनों से जितने भी पूर्व कर्म होते हैं ( अच्छे या बुरे ) वे सब कट जाते हैं । तो ये कर्म ही तो पुनर्जन्म का कारण हैं, कर्म ही न रहे तो पुनर्जन्म क्यों होगा ??
(27) प्रश्न :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय क्या है ?
उत्तर :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय है योग मार्ग से मुक्ति या मोक्ष का प्राप्त करना ।
(28) प्रश्न :- पुनर्जन्म में शरीर किस आधार पर मिलता है ?
उत्तर :- जिस प्रकार के कर्म आपने एक जन्म में किए हैं उन कर्मों के आधार पर ही आपको पुनर्जन्म में शरीर मिलेगा ।
(29) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :- मुख्य रूप से कर्मों को तीन भागों में बाँटा गया है :- सात्विक कर्म , राजसिक कर्म , तामसिक कर्म ।
(१) सात्विक कर्म :- सत्यभाषण, विद्याध्ययन, परोपकार, दान, दया, सेवा आदि ।
(२) राजसिक कर्म :- मिथ्याभाषण, क्रीडा, स्वाद लोलुपता, स्त्रीआकर्षण, चलचित्र आदि ।
(३) तामसिक कर्म :- चोरी, जारी, जूआ, ठग्गी, लूट मार, अधिकार हनन आदि ।
और जो कर्म इन तीनों से बाहर हैं वे दिव्य कर्म कलाते हैं, जो कि ऋषियों और योगियों द्वारा किए जाते हैं । इसी कारण उनको हम तीनों गुणों से परे मानते हैं । जो कि ईश्वर के निकट होते हैं और दिव्य कर्म ही करते हैं ।
(30) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से मनुष्य योनि प्राप्त होती है ?
उत्तर :- सात्विक और राजसिक कर्मों के मिलेजुले प्रभाव से मानव देह मिलती है , यदि सात्विक कर्म बहुत कम है और राजसिक अधिक तो मानव शरीर तो प्राप्त होगा परन्तु किसी नीच कुल में , यदि सात्विक गुणों का अनुपात बढ़ता जाएगा तो मानव कुल उच्च ही होता जायेगा । जिसने अत्यधिक सात्विक कर्म किए होंगे वो विद्वान मनुष्य के घर ही जन्म लेगा ।
(31) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से आत्मा जीव जन्तुओं के शरीर को प्राप्त होता है ?
उत्तर :- तामसिक और राजसिक कर्मों के फलरूप जानवर शरीर आत्मा को मिलता है । जितना तामसिक कर्म अधिक किए होंगे उतनी ही नीच योनि उस आत्मा को प्राप्त होती चली जाती है । जैसे लड़ाई स्वभाव वाले , माँस खाने वाले को कुत्ता, गीदड़, सिंह, सियार आदि का शरीर मिल सकता है , और घोर तामसिक कर्म किए हुए को साँप, नेवला, बिच्छू, कीड़ा, काकरोच, छिपकली आदि । तो ऐसे ही कर्मों से नीच शरीर मिलते हैं और ये जानवरों के शरीर आत्मा की भोग योनियाँ हैं ।
(32) प्रश्न :- तो क्या हमें यह पता लग सकता है कि हम पिछले जन्म में क्या थे ? या आगे क्या होंगे ?
उत्तर :- नहीं कभी नहीं, सामान्य मनुष्य को यह पता नहीं लग सकता । क्योंकि यह केवल ईश्वर का ही अधिकार है कि हमें हमारे कर्मों के आधार पर शरीर दे । वही सब जानता है ।
(33) प्रश्न :- तो फिर यह किसको पता चल सकता है ?
उत्तर :- केवल एक सिद्ध योगी ही यह जान सकता है , योगाभ्यास से उसकी बुद्धि । अत्यन्त तीव्र हो चुकी होती है कि वह ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के महत्वपूर्ण रहस्य़ अपनी योगज शक्ति से जान सकता है । उस योगी को बाह्य इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है वह अन्तः मन और बुद्धि से सब जान लेता है । उसके सामने भूत और भविष्य दोनों सामने आ खड़े होते हैं ।
(34) प्रश्न :- यह बतायें की योगी यह सब कैसे जान लेता है ?
उत्तर :- अभी यह लेख पुनर्जन्म पर है, यहीं से प्रश्न उत्तर का ये क्रम चला देंगे तो लेख का बहुत ही विस्तार हो जायेगा । इसीलिये हम अगले लेख में यह विषय विस्तार से समझायेंगे कि योगी कैसे अपनी विकसित शक्तियों से सब कुछ जान लेता है ? और वे शक्तियाँ कौन सी हैं ? कैसे प्राप्त होती हैं ? इसके लिए अगले लेख की प्रतीक्षा करें…
(35) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म के कोई प्रमाण हैं ?
उत्तर :- हाँ हैं, जब किसी छोटे बच्चे को देखो तो वह अपनी माता के स्तन से सीधा ही दूध पीने लगता है जो कि उसको बिना सिखाए आ जाता है क्योंकि ये उसका अनुभव पिछले जन्म में दूध पीने का रहा है, वर्ना बिना किसी कारण के ऐसा हो नहीं सकता । दूसरा यह कि कभी आप उसको कमरे में अकेला लेटा दो तो वो कभी कभी हँसता भी है , ये सब पुराने शरीर की बातों को याद करके वो हँसता है पर जैसे जैसे वो बड़ा होने लगता है तो धीरे धीरे सब भूल जाता है…!
(36) प्रश्न :- क्या इस पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए कोई उदाहरण हैं…?
उत्तर :- हाँ, जैसे अनेकों समाचार पत्रों में, या TV में भी आप सुनते हैं कि एक छोटा सा बालक अपने पिछले जन्म की घटनाओं को याद रखे हुए है, और सारी बातें बताता है जहाँ जिस गाँव में वो पैदा हुआ, जहाँ उसका घर था, जहाँ पर वो मरा था । और इस जन्म में वह अपने उस गाँव में कभी गया तक नहीं था लेकिन फिर भी अपने उस गाँव की सारी बातें याद रखे हुए है , किसी ने उसको कुछ बताया नहीं, सिखाया नहीं, दूर दूर तक उसका उस गाँव से इस जन्म में कोई नाता नहीं है । फिर भी उसकी गुप्त बुद्धि जो कि सूक्ष्म शरीर का भाग है वह घटनाएँ संजोए हुए है जाग्रत हो गई और बालक पुराने जन्म की बातें बताने लग पड़ा…!
(37) प्रश्न :- लेकिन ये सब मनघड़ंत बातें हैं, हम विज्ञान के युग में इसको नहीं मान सकते क्योंकि वैज्ञानिक रूप से ये बातें बेकार सिद्ध होती हैं, क्या कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार है इन बातों को सिद्ध करने का ?
उत्तर :- आपको किसने कहा कि हम विज्ञान के विरुद्ध इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त का दावा करेंगे । ये वैज्ञानिक रूप से सत्य है , और आपको ये हम अभी सिद्ध करके दिखाते हैं..!
(38) प्रश्न :- तो सिद्ध कीजीए ?
उत्तर :- जैसा कि आपको पहले बताया गया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं
इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा के एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कूल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला करवाना था और वो बच्चा केवल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक नहीं सकता था ।
लेकिन हुआ कुछ यूँ था कि उसे स्कूल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !!
और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक दुभाषिये का प्रबन्ध किया ।
जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उस बालक ने बताया कि ” मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । “
तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकूल मिलती जुलती परिस्थिति से अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उस दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो…!
(39) प्रश्न :- तो ये घटनाएँ भारत में ही क्यों होती हैं ? पूरा विश्व इसको मान्यता क्यों नहीं देता ?
उत्तर :- ये घटनायें पूरे विश्व भर में होती रहती हैं और विश्व इसको मान्यता इसलिए नहीं देता क्योंकि उनको वेदानुसार यौगिक दृष्टि से शरीर का कुछ भी ज्ञान नहीं है । वे केवल माँस और हड्डियों के समूह को ही शरीर समझते हैं , और उनके लिए आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है । तो ऐसे में उनको न जीवन का ज्ञान है, न मृत्यु का ज्ञान है, न आत्मा का ज्ञान है, न कर्मों का ज्ञान है, न ईश्वरीय व्यवस्था का ज्ञान है । और अगर कोई पुनर्जन्म की कोई घटना उनके सामने आती भी है तो वो इसे मानसिक रोग जानकर उसको Multiple Personality Syndrome का नाम देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं और उसके कथनानुसार जाँच नहीं करवाते हैं…!
(40) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म केवल पृथिवी पर ही होता है या किसी और ग्रह पर भी ?
उत्तर :- ये पुनर्जन्म पूरे ब्रह्माण्ड में यत्र तत्र होता है, कितने असंख्य सौरमण्डल हैं, कितनी ही पृथीवियाँ हैं । तो एक पृथीवी के जीव मरकर ब्रह्माण्ड में किसी दूसरी पृथीवी के उपर किसी न किसी शरीर में भी जन्म ले सकते हैं । ये ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन है…
परन्तु यह बड़ा ही अजीब लगता है कि मान लो कोई हाथी मरकर मच्छर बनता है तो इतने बड़े हाथी की आत्मा मच्छर के शरीर में कैसे घुसेगी..?
यही तो भ्रम है आपका कि आत्मा जो है वो पूरे शरीर में नहीं फैली होती । वो तो हृदय के पास छोटे अणुरूप में होती है । सब जीवों की आत्मा एक सी है । चाहे वो व्हेल मछली हो, चाहे वो एक चींटी हो।
मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है
ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों की रचना की लेकिन जब उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की। मनुष्य शरीर की रचना करके ईश्वर बहुत ही प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर सकता है।
हमारे ज्ञानवान पाठक जानते हैं कि मानव शरीर एक देवालय है। ईश्वर ने पंचभूतों (आकाश ,वायु ,अग्नि भूमि और जल ) से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख-प्यास भर दी।
आकाश की सूक्ष्म शरीर से, भूमि की हड्डियों, flesh से और अग्नि की body heat के साथ तुलना की गयी है।
देवताओं ने ईश्वर से कहा कि हमारे रहने योग्य कोई स्थान बताएं जिसमें रह कर हम अपने भोज्य-पदार्थ का भक्षण कर सकें। देवताओं के आग्रह पर जल से गौ और अश्व बाहर आए पर देवताओं ने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि यह हमारे रहने के योग्य नहीं हैं।
जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए। तब ईश्वर ने कहा—अपने रहने योग्य स्थानों में तुम प्रवेश करो ।
तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर, वायु छाती और नासिका-छिद्रों में प्राण बन कर, अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर, दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना ) बन कर कानों में, औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में, चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु (मलद्वार) होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए।
तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं ।
उपनिषद् का निम्नलिखित कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है :
हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं।
आइये देखें मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं :
संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “अप्रकट” रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं। इस सभी इन्द्रियों का टोटल किया जाये तो 14 बनता है।
आइए इन देवताओं के बारे में संक्षेप में जानकारी प्राप्त करें ,इतनी संक्षेप में कि साधारण मनुष्य को भी समझ आ जाये। सभी कठिन शब्दों को सरल करने का प्रयास तो किया है लेकिन जिनका सरलीकरण नहीं किया गया है वह केवल इस लिए कि सरलीकरण के बाद और अधिक कठिनता देखी गयी थी।
नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के देवता—भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं; इसीलिए नेत्रों के द्वारा किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है । नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है ।
घ्राणेन्द्रिय (नासिका) के देवता—नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है ।
श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता—श्रोत-कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं । इनसे शब्द सुनाई पड़ता है ।
जिह्वा के देवता—जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है ।
त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता—त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं । इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है ।
हस्तेन्द्रिय (हाथों) के देवता—मनुष्य के अधिकांश कर्म हाथों से ही संपन्न होते हैं । हाथों में इन्द्रदेव का निवास है ।
चरणों के देवता—चरणों के देवता उपेन्द्र (वामन, श्रीविष्णु) हैं । चरणों में विष्णु का निवास है ।
वाणी के देवता—जिह्वा में दो इन्द्रियां हैं, एक रसना जिससे स्वाद का ज्ञान होता है और दूसरी वाणी जिससे सब शब्दों का उच्चारण होता है । वाणी में सरस्वती का निवास है और वे ही उसकी अधिष्ठाता देवता हैं ।
उपस्थ (मेढ़ू) के देवता—इस गुह्येन्द्रिय के देवता प्रजापति हैं । इससे प्रजा की सृष्टि (संतानोत्पत्ति) होती है ।
गुदा के देवता—इस इन्द्रिय में मित्र, मृत्यु देवता का निवास है । यह मल निस्तारण कर शरीर को शुद्ध करती है ।
बुद्धि इन्द्रिय के देवता—बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं । गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की कामना की गई है इसीलिए यह ‘ब्रह्म-गायत्री’ कहलाती है । जैसे-जैसे बुद्धि निर्मल होती जाती है, वैसे-वैसे सूक्ष्म ज्ञान होने लगता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार भी करा सकता है ।
अहंकार के देवता—अहं के अधिष्ठाता देवता रुद्र हैं । अहं से ‘मैं’ का बोध होता है ।
मन के देवता—मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं । मन ही मनुष्य में संकल्प-विकल्प को जन्म देता है । मन का निग्रह परमात्मा की प्राप्ति करा देता है और मन के हारने पर मनुष्य निराशा के गर्त में डूब जाता है ।
चित्त के देवता—प्रकृति-शक्ति, चिच्छत्ति ही चित्त के देवता हैं । चित्त ही चैतन्य या चेतना है । शरीर में जो कुछ भी स्पन्दन (चलन, चेतना) होती है, सब उसी चित्त के द्वारा होती है ।
भगवान ने ब्रह्माण्ड बनाया और समस्त देवता आकर इसमें स्थित हो गए, किन्तु तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आई और वह विराट् मनुष्य उठा नहीं। जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने चित्त में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष उसी समय उठ कर खड़ा हो गया। इस प्रकार भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं
अब मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान द्वारा बनाए गए इस देवालय को कैसे साफ-सुथरा रखे ? इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए:
नकारात्मक विचारों और मनोविकारों-काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्ष्या,अहंकार से दूर रहे ।
योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार करके अधिक-से-अधिक पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करें ।
अनुलोम-विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके ज्यादा-से ज्यादा शुद्ध हवा का सेवन करे ।
शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखें ।
नीचे दिए गए विवरण को पढ़ते समय आप सोच रहे होंगें कि ऊपर दी गयी जानकारी रिपीट हो रही है। हाँ कुछ तथ्य रिपीट अवश्य हो रहे हैं लेकिन इनका अध्ययन करना लाभदायक ही होगा।
हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर एक देवालय है। इस देवालय के आठ चक्र और नौ द्वार हैं। अर्थववेद में कहा गया है-
जिसका अर्थ है कि आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है अर्थात आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त यह देवों की अयोध्या नामक नगरी है।
विज्ञान के अनुसार मनुष्य का जन्म माता-पिता के संयोग से संभव हो पाता है।
लेकिन क्या केवल संयोग से ही मनुष्य की रचना हो जाती हैं, बिलकुल नहीं ! इसके लिए देवी-देवताओं का सहयोग भी होता है। 33 कोटी के देवी-देवता जैसे कि सूर्य, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चन्द्र आदि हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।
हमारी माता के गर्भ में ये देव अपने एक-एक अंश से बच्चा पैदा करने और उसका पालन पोषण करने में सहयोग करते हैं।
ज़रा कल्पना करें कि अगर वायुदेव माँ के गर्भ में न पहुंच पाए तो क्या गर्भ में जीवन संभव हो सकता है। यही बात जल की है,यही बात अग्नि आदि देवों के बारे में भी लागू होती है। इन सभी देवों को एक-एक करके समझने के लिए तो विज्ञान और अध्यात्म की बैकग्राउंड होनी चाहिए ,अग्निदेव का अर्थ यह कदापि न लिया जाए कि माँ के गर्भ में कोई स्टोव या भट्टी स्थापित है और वह बच्चे के लिए खाना पका रही है। बेसिक साइंस का ज्ञान बताता है कि भोजन का पचना (digestion),उससे रक्त का बनना, एनर्जी का पैदा होना एक प्रकार का combustion/ burning/ignition process है।
अथर्ववेद के 5वें कांड में लिखा है:
सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं,अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है। इस तरह दिव्यलोक का सूर्य, अंतरिक्ष लोक की वायु और पृथ्वी लोक के पदार्थ क्रमशः मेरी आँखें और प्राण स्थूल शरीर में आकर रह रहे है और हाथ जो तीनों लोकों के सूक्ष्म अंश हैं, हमारे शरीर में अवतरित हुए हैं। इसीलिए ज्ञानी मनुष्य मानव शरीर को ब्रह्म मानता है क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही रहते हैं जैसे गोशाला में गायें रहती हैं। माँ के गर्भ में 33 देवता अपने-अपने सूक्ष्म अंशों से रहते हैं परन्तु यह गर्भ तभी स्थिर (ठोस) होने लगता है जब परमात्मा अपने अंश से गर्भ में जीवात्मा को अवतरित करते हैं | उस समय सभी देवता गर्भ में उस परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसकी रक्षा व् वृद्धि करते है | सभी देवता प्रार्थना करते हैं कि- हे जीव ! आप अपने साथ अन्य जीवों का भी कल्याण करना,परन्तु जन्म के समय के कठिन कष्ट के कारण मनुष्य इन बातों को भूल जाता है |
वेद का मंत्र हमें यह स्मरण दिलाता है मैं अमर अथवा अदम्य शक्ति से युक्त हूँ। हमारा शरीर ऐसा दिव्य और मनोहारी मनुष्य शरीर होता है। तभी तो उपनिषदों में ऋषियों का अमर संदेश गूंजता है: अहं ब्रह्मास्मि तत्वमसि | इसी तरह सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। अतः देवता यह घोषणा करते हैं कि सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का ही अंश है इसलिए हम सभी को इसी भगवानमय दृष्टि से एक दूसरे को देखना चाहिए। इस वाक्य को पढ़कर आज के मानव पर घृणा तो आती है कि हमारे वेद, पुराण, उपनिषद ,देवता क्या शिक्षा देते हैं, कैसे इतने परिश्रम से सृष्टि की स्थापना करते हैं,लेकिन मानव महामानव और देवमानव बनने के बजाय दैत्यमानव बनने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शायद उस मानव को यह नहीं मालूम की सृष्टि के नियम, विधाता की अदालत में एक-एक प्राणी के एक-एक कर्म का लेखा लिखा जा रहा है। कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है, सज़ा या इनाम मिल कर ही रहते हैं। कर्म की थ्योरी इतनी strong है कि इससे तो देवता क्या भगवान तक भी बच नहीं पाए।
भविष्य बताने वाला खेल क्या है? | भविष्य जानने की सरल विधि | भूत भविष्य वर्तमान जानने की साधना | त्रिकाल ज्ञान मंत्र | त्रिकालदर्शी मंत्रआज की तेजी से बदलती दुनिया में भविष्य जानना एक जरूरत बनती जा रही है। भविष्य के बारे में जानना एक रोमांचक अनुभव हो सकता है। अधिकांश लोग अपने भविष्य के बारे में जानने की इच्छा रखते हैं। लेकिन इस इच्छा को पूरा करने के लिए अक्सर लोग विभिन्न विधियों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि ज्योतिष, तांत्रिक विद्या और धार्मिक अनुष्ठान आदि।
इस लेख में हम आपको एक सरल विधि बताएंगे जिसके माध्यम से आप भविष्य के बारे में अधिक से अधिक जान सकते हैं। यह विधि स्वतंत्र है और इसका उपयोग करने के लिए आपको किसी भी विशेष अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होगी। इस ब्लॉग के माध्यम से, आप एक ऐसी सरल विधि सीखेंगे जिससे आप अपने भविष्य को आसानी से समझ सकेंगे।
भविष्य बताने वाला खेल क्या है?
ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी भविष्य जानने की यह विद्या है। गांव में यह विद्या पुराने समय से भविष्य जानने के लिए, हमारे बुजुर्ग इस विद्या का इतेमाल करते थे।
यह साधना देखा जाये तो अत्यंत प्रभावी है इसलिए इसे अच्छा होगा की गुरु के सानिध्य में रहेकर ही कि जाये। क्योंकी इस साधना में बड़े ही विचत्र अनुभव होते है जो साधक को मानसिक हानि पोहच्या सकते है।
1. भूत भविष्य वर्तमान जानने का मंत्र
साधक नवरात्रों में भक्तिभाव से हनुमानजी का पूजन करे। फिर किसी हनुमान मंदिर में, जो एकांत में स्थित हो, वहां जाकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके इस मंत्र का दस हजार की संख्या में जप करे।
मंत्र इस प्रकार है:
ॐ नमो वीर हनुमान, हाथ बताशा मुख सूं पान।
आओ हनुमान बताओ हाल, कालरथी को चेला अंजनी को लाल ।
अमुक मनुज को पीछा आगा, भविष सब ऊंचा नीचा।
पाप-पुण्य सब चोखा-चोखा, तुरतहि बताओ न बताओ तो, माता अंजनी का दूध हराम ।
गुरु गोरख उचारे, अंजनी का जाया हनुमान म्हारो काज संवारे।
मेरी भगति गुरु की शक्ति मंत्र सांचा ।
साधना विधि:
नवरात्रों के बाद साधक को नित्य प्रतिदिन एक माला इस मंत्र की जपते रहना चाहिए। छ: माह अथवा उससे पूर्व ही यह मंत्र चैतन्य होकर अपना चमत्कार दिखाने लगता है। धीरे-धीरे ध्यानावस्था में दर्शन के साथ ही स्पष्ट रूप से आवाजें सुनाई देती प्रतीत होती हैं।
ऐसी स्थिति आने पर साधक को अपने अंदर और अधिक मंत्र-बल संजोकर रखना चाहिए। इसके लिए साधक नित्य प्रतिदिन अधिक संख्या में मंत्र-जप करे। मंत्र-जप विषम संख्या में तीन, पांच, सात, नौ… आदि मालाओं के अनुसार ही करना उत्तम रहता है।
साधक को हनुमानजी की साधना श्रद्धा-भक्ति के साथ करनी चाहिए और हनुमानजी को सिंदूर, चोला, नारियल, ध्वज, चना, गुड़ और रोट चढ़ाना चाहिए। हनुमान जयंति, रामनवमी और मंगलवार के व्रत पूजन आदि भक्ति-भाव से करने चाहिएं। इस प्रकार जप और पूजन करने से साधक को अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
प्रयोग विधि:
जब कोई व्यक्ति साधक के पास अपना भविष्य पूछने के लिए आता है, तो साधक उससे उसका नाम-पता आदि पूछकर हनुमान जी के मूर्ती पर पान और बताशा चढ़ाने के लिए भेज दे। इसी बीच साधक हनुमानजी का ध्यान लगाकर मन ही मन मंत्र-जप करता रहे।
अमुक की जगह इच्छित व्यक्ति का नाम ले। साधक को इस ध्यानावस्था में ही उस व्यक्ति के भूत-भविष्य के बारे में सब कुछ ज्ञान हो जाता है। साथ ही उस व्यक्ति की समस्याएं और उनका हल भी साधक को ज्ञात हो जाता है।
सावधानियां
यह मंत्र प्रयोग विधि अत्यंत प्रभावी है, इसलिए इसे अच्छे गुरु के मार्गदर्शन में ही करे। हनुमान जी के सभी नियमनों का पालन करे। साधना काल में मित्रो से दुरी रखे, साधना गुप्त रखे। अगर साधना काल में घबराट महसूस हो, तो रामरक्षा स्तोत्र का 11 बार पाठ करे।
श्री राम रक्षा स्तोत्र हिंदी में एक प्रसिद्ध पौराणिक स्तोत्र है, जो भगवान राम की स्तुति करता है। इस स्तोत्र का उच्चारण भक्ति के साथ श्रद्धापूर्वक किया जाता है और इसे दुःखों से रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। इस पोस्ट में हम राम रक्षा स्तोत्र को हिंदी और इंग्लिश में विस्तार से दोनों भाष्यवो मे दिए है इस स्तोत्र को पढ़कर लाभ लीजिये।
Ram Raksha Stotra In Hindi | राम रक्षा स्तोत्र हिंदी में
विनियोग:
अस्य श्रीरामरक्षास्त्रोतमन्त्रस्य बुधकौशिक ऋषिः ।
श्री सीतारामचंद्रो देवता। अनुष्टुप छंदः। सीता शक्तिः ।
श्रीमान हनुमान कीलकम ।
श्री सीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्त्रोतजपे विनियोगः ।
अथ ध्यानम्:
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपदमासनस्थं,
पीतं वासो वसानं नवकमल दल स्पर्धिनेत्रम् प्रसन्नम ।
ईराक की एक पुस्तक है जिसे ईराकी सरकार ने खुद छपवाया था। इस किताब में 622 ई से पहले के अरब जगत का जिक्र है।
आपको बता दें कि ईस्लाम धर्म की स्थापना इसी साल हुई थी। किताब में बताया गया है कि मक्का में पहले शिवजी का एक विशाल मंदिर था जिसके अंदर एक शिवलिंग थी जो आज भी मक्का के काबा में एक काले पत्थर के रूप में मौजूद है। पुस्तक में लिखा है कि मंदिर में कविता पाठ और भजन हुआ करता था।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे। व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1। वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा। वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2। यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम। फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3। वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन। फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4। जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन। व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात- (1) हे भारत की पुण्य भूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनकेअनुसार आचरण करो। (4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है। (5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े।
उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईर्ष्यावश अबुलजिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनीकुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था।
‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहां इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियों के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहां बने कुएं में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है।
इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों कात्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ से अरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है। ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नई दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़लामन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर कालीस्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
”कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक । कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1। न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा । वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2। व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ । मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3। व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन । व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4। मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम । नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) यदि अन्त में उसको पश्चाताप हो, और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्चपद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहां की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्शगुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।
‘श्रीकृष्ण’ को अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
उत्तर प्रदेश में कृष्ण या गोपाल गोविन्द इत्यादि नामों से जानते है।
राजस्थान में श्रीनाथजी या ठाकुरजी के नाम से जानते है।
महाराष्ट्र में विट्ठल के नाम से भगवान् जाने जाते है।
उड़ीसा में जगन्नाथ के नाम से जाने जाते है।
बंगाल में गोपालजी के नाम से जाने जाते है।
दक्षिण भारत में वेंकटेश या गोविन्दा के नाम से जाने जाते है।
गुजरात में द्वारिकाधीश के नाम से जाने जाते है।
असम, त्रिपुरा, नेपाल इत्यादि पूर्वोत्तर क्षेत्रो में कृष्ण नाम से ही पूजा होती है।
मलेशिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशो में कृष्ण नाम ही विख्यात है।
गोविन्द या गोपाल में “गो” शब्द का अर्थ गाय एवं इन्द्रियों, दोनों से है। गो एक संस्कृत शब्द है और ऋग्वेद में गो का अर्थ होता है–‘मनुष्य की इन्द्रियाँ’…जो इन्द्रियों का विजेता हो जिसके वश में इन्द्रियाँ हो वही गोविन्द है गोपाल है
‘श्रीकृष्ण’ के पिता का नाम वसुदेव था इसलिए इन्हें आजीवन ‘वासुदेव’ के नाम से जाना गया। ‘श्रीकृष्ण’ के दादा का नाम शूरसेन था..
‘श्रीकृष्ण’ का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद के राजा कंस की जेल में हुआ था।
‘श्रीकृष्ण’ के भाई बलराम थे लेकिन उद्धव और अंगिरस उनके चचेरे भाई थे, अंगिरस ने बाद में तपस्या की थी और जैन धर्म के तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम से विख्यात हुए थे।
‘श्रीकृष्ण’ ने 16000 राजकुमारियों को असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था और उन राजकुमारियों को आत्महत्या से रोकने के लिए मजबूरी में उनके सम्मान हेतु उनसे विवाह किया था। क्योंकि उस युग में हरण की गयी स्त्री अछूत समझी जाती थी और समाज उन स्त्रियों को अपनाता नहीं था।
‘श्रीकृष्ण’ की मूल पटरानी एक ही थी जिनका नाम रुक्मणी था जो महाराष्ट्र के विदर्भ राज्य के राजा रुक्मी की बहन थी।। रुक्मी शिशुपाल का मित्र था और ‘श्रीकृष्ण’ का शत्रु।
दुर्योधन ‘श्रीकृष्ण’ का समधी था और उसकी बेटी लक्ष्मणा का विवाह ‘श्रीकृष्ण’ के पुत्र साम्ब के साथ हुआ था।
‘श्रीकृष्ण’ के धनुष का नाम सार्ङ्ग था। शंख का नाम पाञ्चजन्य था। चक्र का नाम सुदर्शन था। उनकी प्रेमिका का नाम राधारानी था जो बरसाना के सरपंच वृषभानु की बेटी थी। ‘श्रीकृष्ण’ राधारानी से निष्काम और निश्वार्थ प्रेम करते थे। राधारानी ‘श्रीकृष्ण’ से उम्र में बहुत बड़ी थी। लगभग 6 साल से भी ज्यादा का अन्तर था। ‘श्रीकृष्ण’ ने 14 वर्ष की उम्र में वृन्दावन छोड़ दिया था।। और उसके बाद वो राधा से कभी नहीं मिले।
‘श्रीकृष्ण’ विद्या अर्जित करने हेतु मथुरा से उज्जैन मध्य प्रदेश आये थे। और यहाँ उन्होंने उच्च कोटि के ब्राह्मण महर्षि सान्दीपनि से अलौकिक विद्याओ का ज्ञान अर्जित किया था।।
‘श्रीकृष्ण’ कुल 125 वर्ष धरती पर रहे। उनके शरीर का रंग गहरा काला था और उनके शरीर से 24 घण्टे पवित्र अष्टगन्ध महकता था। उनके वस्त्र रेशम के पीले रंग के होते थे और मस्तक पर मोरमुकुट शोभा देता था। उनके सारथि का नाम दारुक था और उनके रथ में चार घोड़े जुते होते थे। उनकी दोनो आँखों में प्रचण्ड सम्मोहन था।
‘श्रीकृष्ण’ के कुलगुरु महर्षि शाण्डिल्य थे।
‘श्रीकृष्ण’ का नामकरण महर्षि गर्ग ने किया था।
‘श्रीकृष्ण’ के बड़े पोते का नाम अनिरुद्ध था जिसके लिए ‘श्रीकृष्ण’ ने बाणासुर और भगवान् शिव से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।
‘श्रीकृष्ण’ ने गुजरात के समुद्र के बीचों-बीच द्वारिका नाम की राजधानी बसाई थी। द्वारिका पूरी सोने की थी और उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।
‘श्रीकृष्ण’ को ज़रा नाम के शिकारी का बाण उनके पैर के अंगूठे मे लगा वो शिकारी पूर्व जन्म का बाली था, बाण लगने के पश्चात भगवान स्वलोक धाम को गमन कर गए।
‘श्रीकृष्ण’ ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में अर्जुन को पवित्र गीता का ज्ञान रविवार शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मात्र 45 मिनट में दे दिया था।
‘श्रीकृष्ण’ ने सिर्फ एक बार बाल्यावस्था में नदी में नग्न स्नान कर रही स्त्रियों के वस्त्र चुराए थे और उन्हें अगली बार यूँ खुले में नग्न स्नान न करने की नसीहत दी थी।
‘श्रीकृष्ण’ के अनुसार गौ हत्या करने वाला असुर है और उसको जीने का कोई अधिकार नहीं।
‘श्रीकृष्ण’ अवतार नहीं थे बल्कि अवतारी थे….जिसका अर्थ होता है–‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्।’ न ही उनका जन्म साधारण मनुष्य की तरह हुआ था और न ही उनकी मृत्यु हुई थी।
सर्वान् धर्मान परित्यजम मामेकं शरणम् व्रज अहम् त्वम् सर्व पापेभ्यो मोक्षस्यामी मा शुच– (भगवद् गीता अध्याय 18) ‘श्रीकृष्ण’ कहते हैं–‘सभी धर्मो का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो, मैं सभी पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा, डरो मत।’
भगवान ऋषभदेव के 10 रहस्य, हर मानुषों को जानना जरू हैं। भारतीय संविधान के अनुसार जैन और हिन्दू दो अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन दोनों ही एक ही कुल और खानदान से जन्मे धर्म हैं। भगवान ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीन्ध्र,नाभि और फिर ऋषभ। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। 24 तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव को हिन्दू शास्त्रों में वृषभदेव कहा गया है।जानिए उनके बारे में ऐसे 10 रहस्य जिसे हर हिन्दू को भी जानना जरूरी है।
श्रीभगवान के 24 अवतारों का उल्लेख भागवत पुराणों में मिलता है। भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में 8वां अवतार लिया था। ऋषभदेव महाराज नाभि और मेरुदेवी के पुत्र थे। दोनों द्वारा किए गए यज्ञ से प्रसन्न होकर श्रीभगवान ने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, परीक्षित स्वयं श्रीभगवान ने महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंनेये पवित्र अवतार जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव कहलाए।
भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी और दिगंबर हैं। दोनों के लिए ‘हर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने ‘हर’ शब्द का प्रयोग ऋषभदेव के लिए किया है। दोनों ही कैलाशवासी हैं। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर ही तपस्या कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। दोनों के ही दो प्रमुख पुत्र थे। दोनों का ही संबंध नंदी बैल से है। ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है। शिव, पार्वती के संग हैं तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है।
आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है, यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ से जोड़कर इसलिए देखा जाता। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है। मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दाईं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो त्रिरत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं, जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल है, जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में 7 प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है।
अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर बैठे। युवा होने पर कच्छ और महाकच्छ की 2 बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बना। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। सुनंदा ने बाहुबली को जन्म दिया जिन्होंने घनघोर तप किया और अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। इस प्रकार आदिनाथ ऋषभनाथ 100 पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक 2 पुत्रियों के पिता बने।
उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति), मसि (परिश्रम), वाणिज्य और विद्या- इन 6 आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके 2 पुत्र भरत और बाहुबली तथा 2 पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखाईं। इसी कुल में आगे चलकर इक्ष्वाकु हुए और इक्ष्वाकु के कुल में भगवान राम हुए। ऋषभदेव की मानव मनोविज्ञान में गहरी रुचि थी। उन्होंने शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के साथ लोगों को श्रम करना सिखाया। इससे पूर्व लोग प्रकृति पर ही निर्भर थे। वृक्ष को ही अपने भोजन और अन्य सुविधाओं का साधन मानते थे और समूह में रहते थे। ऋषभदेव ने पहली दफा कृषि उपज को सिखाया। उन्होंने भाषा का सुव्यवस्थीकरण कर लिखने के उपकरण के साथ संख्याओं का आविष्कार किया। नगरों का निर्माण किया।
उन्होंने बर्तन बनाना, स्थापत्य कला, शिल्प, संगीत, नृत्य और आत्मरक्षा के लिए शरीर को मजबूत करने के गुर सिखाए, साथ ही सामाजिक सुरक्षा और दंड संहिता की प्रणाली की स्थापना की। उन्होंने दान और सेवा का महत्व समझाया। जब तक राजा थे उन्होंने गरीब जनता, संन्यासियों और बीमार लोगों का ध्यान रखा। उन्होंने चिकित्सा की खोज में भी लोगों की मदद की। नई-नई विद्याओं को खोजने के प्रति लोगों को प्रोत्साहित किया। भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को सभ्य और संपन्न बनाने में जो योगदान दिया है, उसके महत्व को सभी धर्मों के लोगों को समझने की आवश्यकता है।
एक दिन राजसभा में नीलांजना नाम की नर्तकी की नृत्य करते-करते ही मृत्यु हो गई। इस घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और वे राज्य और समाज की नीति और नियम की शिक्षा देने के बाद राज्य का परित्याग कर तपस्या करने वन चले गए। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत राजा हुए और उन्होंने अपने दिग्विजय अभियान द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। भरत के लघु भ्राता बाहुबली भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गए। राजा भरत के नाम पर ही संपूर्ण जम्बूद्वीप को भारतवर्ष कहा जाने लगा। अंतत: ऋषभदेव के बाद उनके पुत्र भरत ने जहां पिता द्वारा प्रदत्त राजनीति और समाज के विकास और व्यवस्थीकरण के लिए कार्य किया, वहीं उनके दूसरे पुत्र #भगवान #बाहुबली ने पिता की श्रमण परंपरा को विस्तार दिया।
ऋग्वेद में #ऋषभदेव की चर्चा #वृषभनाथ और कहीं-कहीं वातरशना मुनि के नाम से की गई है। शिव महापुराण में उन्हें शिव के 28 योगावतारों में गिना गया है। अंतत: माना यह जाता है कि ऋषभनाथ से ही श्रमण परंपरा की व्यवस्थित शुरुआत हुई और इन्हीं से सिद्धों, नाथों तथा शैव परंपरा के अन्य मार्गों की शुरुआत भी मानी गई है। इसलिए ऋषभनाथ जितने जैनियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, उतने ही हिन्दुओं के लिए भी परम आदरणीय इतिहास पुरुष रहे हैं। हिन्दू और जैन धर्म के इतिहास में यह एक मील का पत्थर है।
ऋषभनाथ नग्न रहते थे। अपने कठोर तपश्चर्या द्वारा कैलाश पर्वत क्षेत्र में उन्हें माघ कृष्ण-14 को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ तथा उन्होंने दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया। वे कुटकाचल पर्वत के वन में नग्न रूप में विचरण करते थे। उन्होंने भ्रमण के दौरान लोगों को धर्म और नीति की शिक्षा दी। उन्होंने अपने जीवनकाल में 4,000 लोगों को दीक्षा दी थी। भिक्षा मांगकर खाने का प्रचलन उन्हीं से शुरू हुआ माना जाता है। इति।
जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं अत: आदिनाथ को 1 वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है। #हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। इस प्रकार कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेन्द्र बन गए। अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के #कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए और वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण (#मोक्ष) प्राप्त किया।
भारत के 10 प्रमुख रहस्यमयी मंदिरों में से एक और 51 शक्तिपीठों में प्रमुख कामाख्या देवी मंदिर असम राज्य की राजधारी दिसपुर के समीप गुवाहाटी से 8 किलोटिर दूर स्थित है। इस मंदिर से काफी रहस्य जुड़े हैं। यहां हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते हैं। मान्यता है कि सती देवी का योनि भाग गिरा था। इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, यहां पर देवी के योनि भाग की ही पूजा की जाती है। मंदिर में साल में एक बार लगने वाला अंबुवाची मेला 22 जून से शुरू हो गया था और उसके साथ ही मंदिर के कपाट भी बंद कर दिए गए थे। अब 26 जून को कपाट फिर खुल जाएंगे और श्रद्धालु फिर से देवी कामाख्या के दर्शन कर सकेंगे। मंदिर के कपाट बंद होने की वजह यह है कि इन दिनों में देवी रजस्वला रहती हैं। इस मेले में दुनिया भर के तांत्रिक तंत्र साधना और सिद्धियों के लिए यहां मौजूद रहते हैं।
मान्यता है कि मेले के दौरान कामाख्या देवी के मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं। तीन दिन तक माता रजस्वला रहती हैं। चौथे दिन देवी के स्नान पूजा के बाद मंदिर के कपाट खुल जाते हैं और भक्तों को प्रसाद वितरण होता है। भक्तों को प्रसाद स्वरूप गीला कपड़ा मिलता है, जो अंबुबाची वस्त्र कहलाता है। माता जब रजस्वला होती हैं तो मंदिर के अंदर श्वेत वस्त्र बिछाते हैं और मान्यता है कि तीन दिन बाद वह वस्त्र लाल हो जाता है। उसे ही भक्तों को प्रसाद स्वरूप बांटा जाता है। यह प्रसाद जिसे मिलता है, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
पवित्र शक्ति पीठ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थापित हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, वहीं तन्त्र चूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठ की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं। वर्तमान में भारत में 42, पाकिस्तान में 1, बांग्लादेश में 4, श्रीलंका में 1, तिब्बत में 1 तथा नेपाल में 2 शक्ति पीठ है।
कैसे बने यह शक्तिपीठ, पढ़ें यह पौराणिक कथा :—
देवी माता के 51 शक्तिपीठों के बनने के सन्दर्भ में पौराणिक कथा प्रचलित है। राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों के एक समूह ने यज्ञ आयोजित किया। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए। भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा। भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की जरूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने उन्हें समझाया लेकिन वह नहीं मानी तो स्वयं जाने से इंकार कर दिया।
शंकरजी के रोकने पर भी जिद कर सती यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष, भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित सती ने यज्ञ-कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।
भगवान शंकर को जब पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय व हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी। भगवान शिव ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमंडल पर भ्रमण करने लगे।
भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिए और कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के अंग विभक्त होकर गिरेंगे, वहां महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंड-खंड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से सती शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते।
‘तंत्र-चूड़ामणि’ के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया।
51- निम्न शक्तिपीठ (51 Shakti Peethas) देश बिदेश में है
किरीट शक्तिपीठ (Kirit Shakti Peeth) : किरीट शक्तिपीठ, पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है। यहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं। (शक्ति का मतलब माता का वह रूप जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के साथ हैं )
कात्यायनी शक्तिपीठ (Katyayani Shakti Peeth ) :वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरे थे। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं तथा भैरव भूतेश है।
करवीर शक्तिपीठ (Karveer shakti Peeth) : महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है।
श्री पर्वत शक्तिपीठ (Shri Parvat Shakti Peeth) : इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरी थी। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं।
विशालाक्षी शक्तिपीठ (Vishalakshi Shakti Peeth) :उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।
गोदावरी तट शक्तिपीठ (Godavari Shakti Peeth) :आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं।
शुचीन्द्रम शक्तिपीठ (Suchindram shakti Peeth) :तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिसागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के मतान्तर से पृष्ठ भाग गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं।
पंच सागर शक्तिपीठ (Panchsagar Shakti Peeth) :इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता के नीचे के दांत गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं।
ज्वालामुखी शक्तिपीठ (Jwalamukhi Shakti Peeth) :हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती की जीभ गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं।
भैरव पर्वत शक्तिपीठ (Bhairavparvat Shakti Peeth) :इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षिप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का ऊपर का ओष्ठ गिरा है।यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं।
अट्टहास शक्तिपीठ ( Attahas Shakti Peeth) : अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति फुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं।
जनस्थान शक्तिपीठ (Janasthan Shakti Peeth) : महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं।
कश्मीर शक्तिपीठ या अमरनाथ शक्तिपीठ (Kashmir Shakti Peeth or Amarnath Shakti Peeth) : जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं।
नन्दीपुर शक्तिपीठ (Nandipur Shakti Peeth) : पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां की शक्ति नन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं।
श्री शैल शक्तिपीठ (Shri Shail Shakti Peeth ) : आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता की ग्रीवा गिरी थी। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथवा ईश्वरानन्द हैं।
नलहटी शक्तिपीठ (Nalhati Shakti Peeth) : पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहटी शक्तिपीठ, जहां माता की उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।
मिथिला शक्तिपीठ (Mithila Shakti Peeth ) : इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तातर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं।
रत्नावली शक्तिपीठ (Ratnavali Shakti Peeth) :इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं।
अम्बाजी शक्तिपीठ (Ambaji Shakti Peeth) : गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के शिखर पर देवी अम्बिका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उर्ध्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है।
जालंधर शक्तिपीठ (Jalandhar Shakti Peeth) :पंजाब के जालंधर में स्थित है माता का जालंधर शक्तिपीठ। जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिपुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं।
रामागिरि शक्तिपीठ (Ramgiri Shakti Peeth) : इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्रकूट तो कुछ मध्यप्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहां की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं।
वैद्यनाथ शक्तिपीठ (Vaidhnath Shakti Peeth) : झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।
वक्त्रेश्वर शक्तिपीठ (Varkreshwar Shakti Peeth) :माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमर्दिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं।
कन्याकुमारी शक्तिपीठ (Kanyakumari Shakti Peeth) :तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता की पीठ गिरी थी। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं।
बहुला शक्तिपीठ (Bahula Shakti Peeth) : पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।
उज्जयिनी शक्तिपीठ (Ujjaini Shakti Peeth) : मध्यप्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी हरसिद्धि शक्तिपीठ। जहां माता की कोहनी गिरी थी। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं।
मणिवेदिका शक्तिपीठ (Manivedika Shakti Peeth) : राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहां माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं।
प्रयाग शक्तिपीठ (Prayag Shakti peeth) : उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद है। इसे अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों पर गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं तथा भैरव भव है।
उत्कल शक्तिपीठ (Utakal Shakti Peeth) : उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरी था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं।
कांची शक्तिपीठ (Kanchi Shakti Peeth) : तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल शरीर गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं।
कालमाधव शक्तिपीठ (Kalmadhav Shakti Peeth) : इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं।
शोण शक्तिपीठ (Shondesh Shakti Peeth) : मध्यप्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं।
कामाख्या शक्तिपीठ (Kamakhya Shakti peeth) : कामगिरि असम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता की योनि गिरी थी। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं।
जयंती शक्तिपीठ (Jayanti Shakti Peeth) : जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयंतिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता की वाम जंघा गिरी थी। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं।
मगध शक्तिपीठ (Magadh Shakti Peeth) : बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता की दाहिना जंघा गिरी थी। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं।
त्रिस्तोता शक्तिपीठ (Tristotaa Shakti Peeth) : पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं।
त्रिपुरी सुन्दरी शक्तिपीठ (Tripura Sundari Shakti Peeth) :त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिपुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं।
38 . विभाषा शक्तिपीठ (Vibhasha Shakti Peeth) :पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्राम में स्थित है विभाषा शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कपालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं।
कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ (Kurukshetra Shakti Peeth) :हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप भद्रकाली पीठ के नाम से भी जाना जाता है। यहां माता के दाहिने चरण गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं।
युगाद्या शक्तिपीठ, क्षीरग्राम शक्तिपीठ ( Yugadhya Shakti Peeth) :पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। यहां की शक्ति जुगाड़या और भैरव क्षीर खंडक है।
विराट अम्बिका शक्तिपीठ (Virat Shakti Peeth) : राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां सती के ‘दाहिने पैर की अंगुलियां गिरी थीं।। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं।
कालीघाट शक्तिपीठ (Kalighat Shakti Peeth) : पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाहिने पैर के अंगूठे को छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं।
मानस शक्तिपीठ (Manas Shakti Peeth) : तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता की दाहिनी हथेली गिरी थी। यहां की शक्ति द्राक्षायणी तथा भैरव अमर हैं।
लंका शक्तिपीठ (Lanka Shakti Peeth) : श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता के नूपुर यानी पायल गिरे थे। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन,वह ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे।
गण्डकी शक्तिपीठ (Gandaki Shakti Peeth) : नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती का दक्षिण कपोल गिरा था। यहां शक्ति गण्डकी´ तथा भैरवचक्रपाणि´ हैं।
गुह्येश्वरी शक्तिपीठ (Guhyeshwari Shakti Peeth) : नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों घुटने गिरे थे। यहां की शक्ति महामाया´ और भैरवकपाल´ हैं।
हिंगलाज शक्तिपीठ (Hinglaj Shakti Peeth) : पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र (सिर का ऊपरी भाग) गिरा था। यहां की शक्ति कोट्टरी और भैरव भीमलोचन है।
सुगंध शक्तिपीठ (Sugandha Shakti Peeth) : बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता की नासिका गिरी थी। यहां की देवी सुनन्दा(मतांतर से सुगंधा) है तथा भैरव त्रयम्बक हैं।
करतोया शक्तिपीठ (Kartoya Shakti Peeth) : बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता की वाम तल्प गिरी थी। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं।
चट्टल शक्तिपीठ (Chatal Shakti Peeth) : बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता की दाहिनी भुजा गिरी थी। यहां की शक्ति भवानी तथा भैरव चन्द्रशेखर हैं।
यशोर शक्तिपीठ (Yashor Shakti Peeth) : बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता की बायीं हथेली गिरी थी। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार कामाख्या में यहाँ पर माता सती का योनि भाग यहां गिरा था। यहां पर मंदिर में चट्टान के बीच बनी आकृति देवी की योनि को दर्शाता है, जिसके पास में एक झरना मौजूद है। योनि भाग से जल धार हल्की बहती रहती है। श्रद्धालुओं की मानें तो इस जल का पान करने से हर प्रकार के रोग एवं बीमारी दूर होती है। इस वर्ष आज 26 जून सायंकाल से मंदिर पुनः शुरू होगा देश बिदेश से हजारों तात्रिक यहाँ हर वर्ष आते और दुर दुर से श्रद्धालुओं का अंम्बुवाची मे ताता लगा रहता है! 🙏🙏जय माता जी सभी का कल्याण करे 🙏🙏
विष्णु भगवान ने पृथ्वी को किस समुद्र से निकाला था, जबकि समुद्र पृथ्वी पर ही है?
🌷🌷
बचपन से मेरे मन मे भी ये सवाल था कि आखिर कैसे पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया जबकि समुद पृथ्वी पर ही है। हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था। फलस्वरूप भगवान बिष्णु ने सूकर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को पुनः उसके कच्छ में स्थापित कर दिया। इस बात को आज के युग में एक दंतकथा के रूप में लिया जाता था। लोगों का ऐसा मानना था कि ये सरासर गलत और मनगढंत कहानी है। लेकिन नासा के एक खोज के अनुसार खगोल विज्ञान की दो टीमों ने ब्रह्मांड में अब तक खोजे गए पानी के सबसे बड़े और सबसे दूर के जलाशय की खोज की है। उस जलाशय का पानी, हमारी पृथ्वी के समुद्र के 140 खरब गुना पानी के बराबर है। जो 12 बिलियन से अधिक प्रकाश-वर्ष दूर है। जाहिर सी बात है कि उस राक्षस ने पृथ्वी को इसी जलाशय में छुपाया होगा। इसे आप “भवसागर” भी कह सकते हैं। क्योंकि हिन्दू शास्त्र में भवसागर का वर्णन किया गया है। जब मैंने ये खबर पढ़ा तो मेरा भी भ्रम दूर हो गया। और अंत मे मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगा की जो इस ब्रह्मांड का रचयिता है, जिसके मर्जी से ब्रह्मांड चलता है। उसकी शक्तियों की थाह लगाना एक तुच्छ मानव के वश की बात नही है। मानव तो अपनी आंखों से उनके विराट स्वरूप को भी नही देख सकता। जिस किसी को इसका स्रोत जानना है वो यहाँ से देख सकते हैं कुछ बेवकूफ जिन्हें ये लगता है कि हमारा देश और यहाँ की सभ्यता गवांर है। जिन्हें लगता है कि नासा ने कह दिया तो सही ही होगा। जिन्हें ये लगता है की भारत की सभ्यता भारत का धर्म और ज्ञान विज्ञान सबसे पीछे है। उनके लिये मैं बता दूं कि सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्मान भारत से ही शुरू हुआ है। अगर आपको इसपर भी सवाल करना है तो आप इतिहास खंगाल कर देखिये। जिन सभ्यताओं की मान कर आप अपने ही धर्म पर सवाल कर रहे हैं उनके देश मे जाकर देखिये। उनके भगवान तथा धर्म पर कोई सवाल नही करता बल्कि उन्होंने अपने धर्म का इतना प्रचार किया है कि मात्र 2000 साल में ही आज संसार मे सबसे ज्यादा ईसाई हैं। और आप जैसे बेवकूफों को धर्मपरिवर्तन कराते हैं। और आप बेवकूफ हैं जो खुद अपने ही देश और धर्म पर सवाल करते हैं। अगर उनकी तरह आपके भी पूर्वज बंदर थे तो आप का सवाल करना तथा ईश्वर पर तर्क करना सर्वदा उचित है। कौन होता है नासा जो हमे ये बताएगा कि आप सही हैं या गलत। हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है इसका अनुमान भी नही लगा सकता नासा। जब इंग्लैंड में पहला स्कूल खुला था तब भारत में लाखों गुरुकुल थे। और लाखों साल पहले 4 वेद और 18 पुराण लिखे जा चुके थे। जब भारत मे प्राचीन राजप्रथा चल रही थी तब ये लोग कपड़े पहनना भी नही जानते थे। तुलसीदास जी ने तब सूर्य के दूरी के बारे में लिख दिया था जब दुनिया को दूरी के बारे में ज्ञान ही नही था। खगोलशास्त्र के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट जो भारत के थे। उन्होंने दुनिया को इस बात से अवगत कराया कि ब्रह्मांड क्या है, पृथ्वी का आकार और व्यास कितना है। और आज अगर कुछ मूर्ख विदेशी संस्कृति के आगे भारत को झूठा समझ रहे हैं तो उनसे बड़ा मूर्ख और द्रोही कोई नही हो सकता। ये अपडेट करना आवश्यक हो गया था। जिनके मन मे ईश्वर के प्रति शंका है।
जो वेद और पुराणों को बस एक मनोरंजन का पुस्तक मानते हैं। उनके लिए शास्त्र कहता है:- बिष्णु विमुख इसका अर्थ है भगवान विष्णु के प्रति प्रीति नहीं रखने वाला, अस्नेही या विरोधी। इसे ईश्वर विरोधी भी कहा गया है। ऐसे परमात्मा विरोधी व्यक्ति मृतक के समान है। ऐसे अज्ञानी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं। जब परमतत्व है ही नहीं तो यह संसार स्वयं ही चलायमान है। हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। अविद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्होंने ईश्वर के नहीं होने के कई कुतर्क एकत्रित कर लिए हैं।
दिन और रात का सही समय पर होना। सही समय पर सूर्य अस्त और उदय होना। पेड़ पौधे, अणु परमाणु तथा मनुष्य की मस्तिष्क की कार्यशैली का ठीक ढंग से चलना ये अनायास ही नही हो रहा है। जीव के अंदर चेतना कहाँ से आता है, हर प्राणी अपने जैसा ही बीज कैसे उत्पन्न करता है, शरीर की बनावट उसके जरूरत के अनुसार ही कैसे होता है? बिना किसी निराकार शक्ति के ये अपने आप होना असंभव है। और अगर अब भी ईश्वर और वेद पुराण के प्रति तर्क करना है तो उसके जीवन का कोई महत्व नही है।