Sri Krishna Devaraya- Great last South Indian king- history forgot him…but remembers Terrorist Tipu Sultan

Sri Krishna Devaraya

My state Karnataka celebrates the birth Anniversary of a monster like Tippu Sultan but today is birth anniversary of greatest king of medieval history Sri Krishna Devaraya and there is no celebration either in Telugu states or in Karnataka where his capital Hampi is located
Sri Krishna Devaraya was last hindu emperor of the south and he was a versatile genius
His greatness can’t be covered in this mere facebook post. It needs a big history book
He was such a great warrior that Babur said I learnt war from him
His kingdom was richest in the world
His capital Hampi was biggest city of the world
He made Bahamani sultan kiss his feet
He built so many canals and irrigation systems that most of the ponds canals that exist in south are from his era
They sold diamonds and gold on streets and they say there was no trader who didn’t get rich without trading with Vijayanagar
He was the one who made Tirupathi such a great temple and it is still the worlds richest temple and you can see the statue of king and wives in the temple
But his greatest achievement was in the field of literature

He authored great classics in Sanskrit & Telugu. His book Amukta Malyada is one of the greatest classic in India and even great scholars can’t understand the language and hence the version we read is an interpretation written later
My father used to tell that if you understand even one page of Amukta Malyada without help of dictionary or interpretation then you are a Telugu and Sanskrit genius
I couldn’t achieve that genius in my mother tongue and I hope at least I can give such education to my daughter

Srikrishna Devaraya patronised Sanskrit Telugu Kannada & Tamil
He was a poet author musician patron of arts and a great warrior & military genius
His court had Asta Diggajas (8 literary gaints) of Telugu literature
They are Allasani Peddana, Dhurjati, Nandi Thimmana, Madayyagari Mallana and Ayyalaraju Ramabhadrudu Tenali Ramakrishna & Ramarajabhushanudu
To be considered as one of the diggaja (giant) who have to author at least one Prabandha Kavyamu
Prabandha means highest form of poetic literature
It should have Salli (style) Paka (mould or taste) rasa (aesthetics) and Alankara (ornamentation)

After that golden age of literature nobody has written any such classics in south India
But in KrishnaDeva Raya court there were 8 such poets. Imagine the culture and zenith of civilisation south India had reached in 16th century before Babar the b@that Ian touched this holy land

Since Krishnna Devaraya was such a genius and patron of arts, his conversations with Tenali Ramakrishna one of 8 great poets but with lot of wit and humour is such legendary stuff
This witticism was captured in Deccan in every language and some Deccan poets of Bahmani sultans went to delhi after m0ghals captured south and took these stories and made them into Akbar Birbal stories

Akbar was an illiterate and a deb0uch opium addict and s£z maniac
He could never have had such wit and humour
If you still believe he was such witty person it shows how our education has brainwashed us into believing that m0ghal barb@rians were such civilised folk
And also made us to forgot the great hindu kings we had in India 🇮🇳

Yeah I don’t blame anyone for it but Bollywood and our education which has perpetuated such myths.

Credits Vishnu Vardhan

Jainism is branch of Hinduism

भगवान ऋषभदेव के 10 रहस्य, हर मानुषों को जानना जरू हैं।
भारतीय संविधान के अनुसार जैन और हिन्दू दो अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन दोनों ही एक ही कुल और खानदान से जन्मे धर्म हैं। भगवान ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीन्ध्र,नाभि और फिर ऋषभ। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। 24 तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव को हिन्दू शास्त्रों में वृषभदेव कहा गया है।जानिए उनके बारे में ऐसे 10 रहस्य जिसे हर हिन्दू को भी जानना जरूरी है।

  1. श्रीभगवान के 24 अवतारों का उल्लेख भागवत पुराणों में मिलता है। भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में 8वां अवतार लिया था। ऋषभदेव महाराज नाभि और मेरुदेवी के पुत्र थे। दोनों द्वारा किए गए यज्ञ से प्रसन्न होकर श्रीभगवान ने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, परीक्षित स्वयं श्रीभगवान ने महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंनेये पवित्र अवतार जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव कहलाए।
  2. भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी और दिगंबर हैं। दोनों के लिए ‘हर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने ‘हर’ शब्द का प्रयोग ऋषभदेव के लिए किया है। दोनों ही कैलाशवासी हैं। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर ही तपस्या कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। दोनों के ही दो प्रमुख पुत्र थे। दोनों का ही संबंध नंदी बैल से है। ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है। शिव, पार्वती के संग हैं तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है।
  3. आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है, यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ से जोड़कर इसलिए देखा जाता। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है। मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दाईं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो त्रिरत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं, जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल है, जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में 7 प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है।
  4. अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर बैठे। युवा होने पर कच्छ और महाकच्‍छ की 2 बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बना। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। सुनंदा ने बाहुबली को जन्म दिया जिन्होंने घनघोर तप किया और अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। इस प्रकार आदिनाथ ऋषभनाथ 100 पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक 2 पुत्रियों के पिता बने।
  5. उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति), मसि (परिश्रम), वाणिज्य और विद्या- इन 6 आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके 2 पुत्र भरत और बाहुबली तथा 2 पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखाईं। इसी कुल में आगे चलकर इक्ष्वाकु हुए और इक्ष्वाकु के कुल में भगवान राम हुए। ऋषभदेव की मानव मनोविज्ञान में गहरी रुचि थी। उन्होंने शारीरिक और मानसिक क्षमताओं के साथ लोगों को श्रम करना सिखाया। इससे पूर्व लोग प्रकृति पर ही निर्भर थे। वृक्ष को ही अपने भोजन और अन्य सुविधाओं का साधन मानते थे और समूह में रहते थे। ऋषभदेव ने पहली दफा कृषि उपज को सिखाया। उन्होंने भाषा का सुव्यवस्थीकरण कर लिखने के उपकरण के साथ संख्याओं का आविष्कार किया। नगरों का निर्माण किया।
  6. उन्होंने बर्तन बनाना, स्थापत्य कला, शिल्प, संगीत, नृत्य और आत्मरक्षा के लिए शरीर को मजबूत करने के गुर सिखाए, साथ ही सामाजिक सुरक्षा और दंड संहिता की प्रणाली की स्थापना की। उन्होंने दान और सेवा का महत्व समझाया। जब तक राजा थे उन्होंने गरीब जनता, संन्यासियों और बीमार लोगों का ध्यान रखा। उन्होंने चिकित्सा की खोज में भी लोगों की मदद की। नई-नई विद्याओं को खोजने के प्रति लोगों को प्रोत्साहित किया। भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को सभ्य और संपन्न बनाने में जो योगदान दिया है, उसके महत्व को सभी धर्मों के लोगों को समझने की आवश्यकता है।
  7. एक दिन राजसभा में नीलांजना नाम की नर्तकी की नृत्य करते-करते ही मृत्यु हो गई। इस घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और वे राज्य और समाज की नीति और नियम की शिक्षा देने के बाद राज्य का परित्याग कर तपस्या करने वन चले गए। उनके ज्येष्ठ पु‍त्र भरत राजा हुए और उन्होंने अपने दिग्विजय अभियान द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। भरत के लघु भ्राता बाहुबली भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गए। राजा भरत के नाम पर ही संपूर्ण जम्बूद्वीप को भारतवर्ष कहा जाने लगा। अंतत: ऋषभदेव के बाद उनके पुत्र भरत ने जहां पिता द्वारा प्रदत्त राजनीति और समाज के विकास और व्यवस्थीकरण के लिए कार्य किया, वहीं उनके दूसरे पुत्र #भगवान #बाहुबली ने पिता की श्रमण परंपरा को विस्तार दिया।
  8. ऋग्वेद में #ऋषभदेव की चर्चा #वृषभनाथ और कहीं-कहीं वातरशना मुनि के नाम से की गई है। शिव महापुराण में उन्हें शिव के 28 योगावतारों में गिना गया है। अंतत: माना यह जाता है कि ऋषभनाथ से ही श्रमण परंपरा की व्यवस्थित शुरुआत हुई और इन्हीं से सिद्धों, नाथों तथा शैव परंपरा के अन्य मार्गों की शुरुआत भी मानी गई है। इसलिए ऋषभनाथ जितने जैनियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, उतने ही हिन्दुओं के लिए भी परम आदरणीय इतिहास पुरुष रहे हैं। हिन्दू और जैन धर्म के इतिहास में यह एक मील का पत्थर है।
  9. ऋषभनाथ नग्न रहते थे। अपने कठोर तपश्चर्या द्वारा कैलाश पर्वत क्षेत्र में उन्हें माघ कृष्ण-14 को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ तथा उन्होंने दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया। वे कुटकाचल पर्वत के वन में नग्न रूप में विचरण करते थे। उन्होंने भ्रमण के दौरान लोगों को धर्म और नीति की शिक्षा दी। उन्होंने अपने जीवनकाल में 4,000 लोगों को दीक्षा दी थी। भिक्षा मांगकर खाने का प्रचलन उन्हीं से शुरू हुआ माना जाता है। इति।
  10. जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं अत: आदिनाथ को 1 वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है। #हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। इस प्रकार कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेन्द्र बन गए। अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के #कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए और वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण (#मोक्ष) प्राप्त किया।

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बख्तियार खिलजी की मौत कैसे हुई थी ?

क्या आप जानते हैं कि विश्वप्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाने वाले जे हादी बख्तियार खिलजी की मौत कैसे हुई थी ???

असल में ये कहानी है सन 1206 ईसवी की…!

1206 ईसवी में कामरूप में एक जोशीली आवाज गूंजती है…

“बख्तियार खिलज़ी तू ज्ञान के मंदिर नालंदा को जलाकर कामरूप (असम) की धरती पर आया है… अगर तू और तेरा एक भी सिपाही ब्रह्मपुत्र को पार कर सका तो मां चंडी (कामातेश्वरी) की सौगंध मैं जीते-जी अग्नि समाधि ले लूंगा”… राजा पृथु

और , उसके बाद 27 मार्च 1206 को असम की धरती पर एक ऐसी लड़ाई लड़ी गई जो मानव अस्मिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है.

एक ऐसी लड़ाई जिसमें किसी फौज़ के फौज़ी लड़ने आए तो 12 हज़ार हों और जिन्दा बचे सिर्फ 100….

जिन लोगों ने युद्धों के इतिहास को पढ़ा है वे जानते हैं कि जब कोई दो फौज़ लड़ती है तो कोई एक फौज़ या तो बीच में ही हार मान कर भाग जाती है या समर्पण करती है…

लेकिन, इस लड़ाई में 12 हज़ार सैनिक लड़े और बचे सिर्फ 100 वो भी घायल….

ऐसी मिसाल दुनिया भर के इतिहास में संभवतः कोई नहीं….

आज भी गुवाहाटी के पास वो शिलालेख मौजूद है जिस पर इस लड़ाई के बारे में लिखा है.

उस समय मुहम्मद बख्तियार खिलज़ी बिहार और बंगाल के कई राजाओं को जीतते हुए असम की तरफ बढ़ रहा था.

इस दौरान उसने नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया था और हजारों बौद्ध, जैन और हिन्दू विद्वानों का कत्ल कर दिया था.

नालंदा विवि में विश्व की अनमोल पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ, अभिलेख आदि जलकर खाक हो गये थे.

यह जे हादी खिलज़ी मूलतः अफगानिस्तान का रहने वाला था और मुहम्मद गोरी व कुतुबुद्दीन एबक का रिश्तेदार था.

बाद के दौर का अलाउद्दीन खिलज़ी भी उसी का रिश्तेदार था.

असल में वो जे हादी खिलज़ी, नालंदा को खाक में मिलाकर असम के रास्ते तिब्बत जाना चाहता था.

क्योंकि, तिब्बत उस समय… चीन, मंगोलिया, भारत, अरब व सुदूर पूर्व के देशों के बीच व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था तो खिलज़ी इस पर कब्जा जमाना चाहता था….
लेकिन, उसका रास्ता रोके खड़े थे असम के राजा पृथु… जिन्हें राजा बरथू भी कहा जाता था…

आधुनिक गुवाहाटी के पास दोनों के बीच युद्ध हुआ.

राजा पृथु ने सौगन्ध खाई कि किसी भी सूरत में वो खिलज़ी को ब्रह्मपुत्र नदी पार कर तिब्बत की और नहीं जाने देंगे…

उन्होने व उनके आदिवासी यौद्धाओं नें जहर बुझे तीरों, खुकरी, बरछी और छोटी लेकिन घातक तलवारों से खिलज़ी की सेना को बुरी तरह से काट दिया.

स्थिति से घबड़ाकर…. खिलज़ी अपने कई सैनिकों के साथ जंगल और पहाड़ों का फायदा उठा कर भागने लगा…!

लेकिन, असम वाले तो जन्मजात यौद्धा थे..

और, आज भी दुनिया में उनसे बचकर कोई नहीं भाग सकता….

उन्होने, उन भगोडों खिलज़ियों को अपने पतले लेकिन जहरीले तीरों से बींध डाला….

अन्त में खिलज़ी महज अपने 100 सैनिकों को बचाकर ज़मीन पर घुटनों के बल बैठकर क्षमा याचना करने लगा….

राजा पृथु ने तब उसके सैनिकों को अपने पास बंदी बना लिया और खिलज़ी को अकेले को जिन्दा छोड़ दिया उसे घोड़े पर लादा और कहा कि
“तू वापस अफगानिस्तान लौट जा…
और, रास्ते में जो भी मिले उसे कहना कि तूने नालंदा को जलाया था फ़िर तुझे राजा पृथु मिल गया…बस इतना ही कहना लोगों से….”

खिलज़ी रास्ते भर इतना बेइज्जत हुआ कि जब वो वापस अपने ठिकाने पंहुचा तो उसकी दास्ताँ सुनकर उसके ही भतीजे अली मर्दान ने ही उसका सर काट दिया….

लेकिन, कितनी दुखद बात है कि इस बख्तियार खिलज़ी के नाम पर बिहार में एक कस्बे का नाम बख्तियारपुर है और वहां रेलवे जंक्शन भी है.

जबकि, हमारे राजा पृथु के नाम के शिलालेख को भी ढूंढना पड़ता है.

लेकिन, जब अपने ही देश भारत का नाम भारत करने के लिए कोर्ट में याचिका लगानी पड़े तो समझा जा सकता है कि क्यों ऐसा होता होगा…..

उपरोक्त लेख पढ़ने के बाद भी अगर कायर, नपुंसक एवं तथाकथित गद्दार धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवी व स्वार्थी हिन्दूओं में एकता की भावना नहीं जागती…

तो लानत है ऐसे लोगों पर.

जय महाकाल…!!!

कुतुबुद्दीनऐबक, और #क़ुतुबमीनारकी सच्चाई

Real Islamic structure

कुतुबुद्दीनऐबक, और #क़ुतुबमीनारकी सच्चाई

किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि वो अपने देश, अपनी संसकृति और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें ।

इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे हिसाब जुल्म किये थे ।
अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी विष्णु स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब विष्णू स्तम्भ (क़ुतुबमीनार) को बनवाया या विष्णु स्तम्भ (कुतुबमीनार) से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?

दो खरीदे हुए गुलाम

कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाब रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया ।

ढाई दिन का झोपड़ा

अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा ।
कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह “अढाई दिन का झोपड़ा” के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी “कुतुबुद्दीन” को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति “बख्तियार खिलजी” (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था ।

दोनों गुलाम को शासन

कुतुबुद्दीन कुल चार साल ( 1206 से 1210 तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाय ।

विष्णु स्तम्भ

जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की वेधशाला (observatory) थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर “विक्रम संवत” का आविष्कार किया था. यहाँ पर 27 छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णु स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था ।
दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन 27 मंदिरों को तोड दिया. विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया. तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता.

कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत का सच
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अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की. इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग “पोलो” नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है ।
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा विरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया.
एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का “शुभ्रक” चुना.
कुतुबुद्दीन “शुभ्रक” घोडे पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक घोडे ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन वहीं पर मर गया ।

शुभ्रक मरकर भी अमर हो गया

इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक घोडे पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा ।
वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं ।

अलई मीनार या अल्लाई मीनार का सच

कुतुबमीनार परिसर में ही एक अनगढ़ इमारत मिल जाएगी, जिसके शिलापट्ट पर अलई मीनार लिखा है और उसमें तारीख लिखी है और यह भी लिखा है कि अलाउद्दीन खिलज़ी ने इस मीनार को कुतुबमीनार के टक्कर में बनाने का असफल प्रयास किया था. और वह भी कुतुबमीनार के तथाकथित निर्माण की तिथि से डेढ़- दो सौ साल बाद.

सोचो जो एक बनी बनाई इमारत की नकल नहीं कर सकते वो असली इमारत क्या बनवा पाते…?

इसी तरह औरंगजेब यमुना के उस पार काला ताजमहल बनवाने के मंसूबे पाले मर गया, जबकि वह 52 साल तक सबसे अधिक समय तक दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला मुगल शासक था.

विष्णु स्तम्भ ( वर्तमान कुतुबमीनार) की टक्कर में बनाई गई अलाई मीनार, महरौली, कुतुबमीनार परिसर, दिल्ली.

ये है इस्लामिक वास्तुकला का सच और सुबूत…..

आंख फाड़ कर देख लो

और संभवतः ये अलाई मीनार , विष्णु-स्तम्भ (कुतुबमीनार) परिसर में तोड़े गए 27 नक्षत्र मंदिरों के ही ढेर से बनाई जा रही थी.🙏साभार🙏

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