How India prevented from Muslim terrorism by Kshatriyas

स्वयं भी पढ़ें और अपने बच्चों को भी पढ़ाएं, ये आपकी आंखें खोल देगी…*

👉 622 ई से लेकर 634 ई तक मात्र 12 वर्ष में अरब के सभी मूर्तिपूजकों को मुहम्मद ने इस्लाम की तलवार के बल पर मुसलमान बना दिया।
👉 634 ईस्वी से लेकर 651 तक, यानी मात्र 16 वर्ष में सभी पारसियों को तलवार की नोक पर इस्लाम का कलमा पढ़वा दिया गया।
👉 640 में मिस्र में पहली बार इस्लाम ने पांव रखे, और देखते ही देखते मात्र 15 वर्षों में, 655 तक इजिप्ट के लगभग सभी लोग मुसलमान बना दिये गए।
👉 नार्थ अफ्रीकन देश जैसे – अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को आदि देशों को 640 से 711 ई तक पूर्ण रूप से इस्लाम धर्म मे बदल दिया गया, 3 देशों का सम्पूर्ण सुख चैन लेने में मुसलमानो ने मात्र 71 साल लगाए।
👉 711 ईस्वी में स्पेन पर आक्रमण हुआ, 730 ईस्वी तक स्पेन की 70% आबादी मुसलमान थी। मात्र 19 वर्षों में!
👉 तुर्क थोड़े से वीर निकले, तुर्को के विरुद्ध जिहाद 651 ईस्वी में शुरू हुआ, और अगले सौ वर्ष तक संघर्ष करते करते अंततः 751 ईस्वी तक सारे तुर्क मुसलमान बना दिये गए।
👉 इंडोनेशिया के विरुद्ध जिहाद मात्र 40 वर्ष में पूरा हुआ। 1260 में मुसलमानो ने इंडोनेशिया में मार काट मचाई, और 1300 ईस्वी तक सारे इंडोनेशियाई मुसलमान बन चुके थे।
👉 फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन आदि देशों को 634 से 650 के बीच मुसलमान बना दिया गया।
उसके बाद 700 ईस्वी में भारत के विरुद्ध जिहाद शुरू हुआ जो अब तक चल रहा है।
👉 अब आप भारत की स्थिति देखिये… जिस समय आक्रमणकारी ईरान तक पहुंचकर अपना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर चुके थे, उस समय उनकी हिम्मत नही थी कि भारत के राजपूत साम्राज्य की और आंख उठाकर भी देख सकें..!!
👉 636 ईस्वी में खलीफा ने भारत पर पहला हमला बोला। एक भी आक्रांता जिंदा वापस नही जा पाया।
👉 कुछ वर्ष तक तो मुस्लिम आक्रान्ताओ की हिम्मत तक नही हुई कि भारत की ओर मुंह करके सोया भी जाएं, लेकिन कुछ ही वर्षो में गिद्धों ने अपनी जाति दिखा ही दी…!
👉 दोबारा आक्रमण हुआ, इस समय खलीफा की गद्दी पर उस्मान आ चुका था। उसने हाकिम नाम के सेनापति के साथ विशाल इस्लामी टिड्डिडल भारत भेजा। सेना का पूर्णतः सफाया हो गया, और सेनापति हाकिम बंदी बना लिया गया। हाकिम को भारतीय राजपूतो ने बहुत मारा, और बड़े बुरे हाल करके वापस अरब भेजा, जिससे उनकी सेना की दुर्गति का हाल, उस्मान तक पहुंच जाएं।
👉 यह सिलसिला लगभग 700 ईस्वी तक चलता रहा। जितने भी मुसलमानों ने भारत की तरफ मुँह किया, राजपूतो ने उनका सिर कंधे से नीचे उतार दिया ।।
👉 जब 7वी सदी इस्लाम की शुरू हुई, जब अरब से लेकर अफ्रीका, ईरान, कई यूरोपीए देश, सीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया, तुर्की यह बड़े बड़े देश जब मुसलमान बन गए, भारत में “बप्पा रावल” महाराणा प्रताप के पितामह का जन्म हो चुका था। वे पूर्णतः योद्धा बन चुके थे, इस्लाम के पंजे में जकड़ गए अफगानिस्तान तक से मुसलमानों को उस वीर ने मार भगाया। केवल यही नही, वह लड़ते लड़ते खलीफा की गद्दी तक जा पहुंचे, जहां खुद खलीफा को अपनी जान की भीख मांगनी पड़ी।
👉 उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं। नागभट्ट प्रतिहार द्वितीय जैसे योद्धा भारत को मिले। जिन्होंने अपने पूरे जीवन राजपूत धर्म का पालन करते हुए पूरे भारत की न केवल रक्षा की, बल्कि हमारी शक्ति का डंका विश्व में बजाए रखा।
👉 पहले बप्पा रावल में साबित किया था कि अरब अपराजित नही हैं, लेकिन 836 ई के समय भारत में वह हुआ, जिससे विश्वविजेता मुसलमान थर्रा गए…। मुसलमानों ने अपने इतिहास में उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन कहा है, वह सरदार भी राजपूत ही थे।
👉सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार। मिहिरभोज के बारे में कहा जाता है, कि उनका प्रताप ऋषि अगस्त्य से भी अधिक चमका..। ऋषि अगस्त्य वही है, जिन्होंने श्रीराम को वह अस्त्र दिया था, जिससे रावण का वध सम्भव था। राम के विजय अभियान के हिडन योद्धाओं में एक..! उन्होंने मुसलमानो को केवल 5 गुफाओं तक सीमित कर दिया।। यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध में केवल जीत हासिल करते थे, और वहां की प्रजा को मुसलमान बना देते, भारत के वीर राजपूत मिहिरभोज ने इन अक्रान्ताओ को अरब तक थर्रा दिया था।
👉 पृथ्वीराज चौहान तक इस्लाम के उत्कर्ष के 400 सालों बाद तक भारत के राजपूतो ने इस्लाम नाम की बीमारी भारत को नही लगने दी, उस युद्ध काल में भी भारत की अर्थव्यवस्था को गिरने नही दिया।। उसके बाद कुछ राजपूतों की आपसी खींच तान व दुश्मनी का शैतानी सहारा लेकर मुसलमान कुछ जगह घुसने में कामयाब भी हुए, लेकिन राजपूतों ने सत्ता गंवाकर भी हार नही मानी। एक दिन वह चैन से नही बैठे, अंतिम वीर दुर्गादास जी राठौड़ ने दिल्ली को झुकाकर, जोधपुर का किला मुगलों के हलक ने निकाल कर हिन्दू धर्म की गरिमा, वीरता और शौर्य को चार चांद लगा दिए ।।
👉 किसी भी देश को मुसलमान बनाने में मुसलमानो ने औसतन 20 वर्ष नही लिए। भारत में 500 वर्ष अलग अलग क्षेत्रों पर राज करने के बाद भी मेवाड़ के शेर महाराणा राजसिंह ने अपने घोड़े पर भी इस्लाम की मुहर नही लगने दी।
👉 महाराजा रणजीत सिंह के पराक्रम को कौन नहीं जानता जिन्होंने हर दुश्मन को पराजित किया
👉 महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड़, मिहिरभोज, दुर्गावती, चौहान, परमार सहित लगभग सारे राजपूत अपनी मातृभूमि के लिए जान पर खेलते गए। एक समय तो ऐसा आ गया था जब लड़ते लड़ते राजपूत केवल 2% पर आकर ठहर गए ।।
👉 एक बार पूरी दुनिया की ओर देखें और आज अपना वर्तमान देखे…!! जिन मुसलमानो ने 20 वर्षों में लगभग आधे विश्व की आबादी को मुसलमान बना दिया, वह भारत में केवल पाकिस्तान बांग्लादेश तक सिमट कर ही क्यों रह गए ?
👉 मान लिया कि उस समय लड़ना राजपूत राजाओं का धर्म था, लेकिन जब राजाओं ने अपना धर्म निभा दिया, तो आज उनकी बेटियों, पोतियों पर काल्पनिक कहानियां गढ़कर उन योद्धाओं के वंशजो का हिंदुओ द्वारा ही अपमान किया गया। कुछ कथित सेकुलर हिन्दूओं द्वारा ही उन आक्रांताओं के थोपे गए झूंठे इतिहास का महिमामंडन करना बेहद शर्मनाक है।
👉 राजा भोज, विक्रमादित्य, नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय, चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, समुद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, छत्रसाल बुंदेला, आल्हा उदल, राजा भाटी, भूपत भाटी, चाचादेव भाटी, सिद्ध श्री देवराज भाटी, कानड़ देव चौहान, वीरमदेव चौहान, हठी हम्मीर देव चौहान, विग्रहराज चौहान, मालदेव सिंह राठौड़, विजय राव लांझा भाटी, भोजदेव भाटी, चूहड़ विजयराव भाटी, बलराज भाटी, घड़सी, रतनसिंह, राणा हमीर सिंह और अमर सिंह, अमर सिंह राठौड़, दुर्गादास राठौड़, जसवंत सिंह राठौड़ मिर्जा, राजा जयसिंह, राजा जयचंद, भीमदेव सोलंकी, सिद्ध श्री राजा जय सिंह सोलंकी, पुलकेशिन द्वितीय सोलंकी, रानी दुर्गावती, रानी कर्णावती, राजकुमारी रत्नाबाई, रानी रुद्रा देवी, हाड़ी रानी, पद्मावती, तोगा जी, वीरवर कल्लाजी, जयमल जी जेता कुपा, गोरा बादल राणा रतन सिंह, पजबन राय जी कच्छवा, मोहन सिंह मंढाड़, राजा पोरस, हर्षवर्धन बेस, सुहेलदेव बेस, राव शेखाजी, राव चंद्रसेन जी दोड़, राव चंद्र सिंह जी राठौड़, कृष्ण कुमार सोलंकी, ललितादित्य मुक्तापीड़, जनरल जोरावर सिंह कालुवारिया, धीर सिंह पुंडीर, बल्लू जी चंपावत, भीष्म रावत चुण्डा जी, रामसाह सिंह तोमर और उनका वंश, झाला राजा मान सिंह, महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर, स्वतंत्रता सेनानी राव बख्तावर सिंह अमझेरा वजीर सिंह पठानिया, राव राजा राम बक्स सिंह, व्हाट ठाकुर कुशाल सिंह, ठाकुर रोशन सिंह, ठाकुर महावीर सिंह, राव बेनी माधव सिंह, डूंगजी, भुरजी, बलजी, जवाहर जी, छत्रपति शिवाजी और हमारे न जाने अनगिनत लोक देवता और एक से बढ़कर एक योद्धा लोक देवताओं, संत, सती जुझार, भांजी जडेजा, अजय पाल देव जी।
👉 यह तो केवल कुछ ही नाम हैं जिन्हें हमने गलती से किसी इतिहास या फिर किसी पुस्तक में पढ़ लिया वरना स्कूल पाठ्यक्रम में तो इन वीरों नाम निशान नहीं मिलेगा। एक से बढ़कर एक योद्धा पैदा हुए हैं जिन्होंने 18 वर्ष की आयु से पहले ही अपना योगदान दे दिया घर के घर, गांव के गांव, ढाणी की ढाणी खाली हो गईं… जब कोई भी पुरुष नहीं बचा किसी गांव या ढाणी में पूरा का पूरा परिवार पूरे पूरे गांव कुर्बान हो गए… एक रणभेरी पर बच्चा बच्चा जान हथेली पर रखकर चल गया धर्म के लिए आहुति देने…।
👉 आज हमारे यहाँ हिन्दू, सिख, ईसाई आदि इन्हीं बलिदानियों के महान बलिदानों के कारण अस्तित्व में बचे हुए हैं।

*👉 सभी बंधुओं से निवेदन है कि यह जानकारी अधिक से अधिक शेयर करें क्योंकि ये जानकारी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ने को नहीं मिलेगी। कारण यह है कि स्वतंत्र भारत के पहले पांच शिक्षा मंत्री उन आक्रांता मुगलों के प्रचारक थे!!

Read yourself and teach your children too, it will open your eyes…*

In just 12 years from 622 AD to 634 AD, Muhammad converted all the idolaters of Arabia to Islam on the strength of the sword of Islam.
From 634 AD to 651, that is, in just 16 years, all the Parsis were taught the Kalama of Islam at the tip of the sword.
Islam first set foot in Egypt in 640, and in just 15 years, by 655, almost all the people of Egypt were converted to Islam.
North African countries like – Algeria, Tunisia, Morocco etc. were completely converted to Islam from 640 to 711 AD, Muslims took only 71 years to take complete happiness of 3 countries.
Spain was invaded in 711 AD, by 730 AD 70% of the population of Spain was Muslim. In just 19 years!
The Turks turned out to be a little brave, the jihad against the Turks began in 651 AD, and after fighting for the next hundred years, all the Turks were finally converted to Muslims by 751 AD.
Jihad against Indonesia completed in just 40 years. In 1260, Muslims attacked Indonesia, and by 1300 AD all Indonesians had become Muslims.
Countries like Palestine, Syria, Lebanon, Jordan etc. were made Muslims between 634 and 650.
_ after that jihad against India started in 700 AD which is going on till now._
Now you see the condition of India… At the time when the invaders had established their big empire after reaching Iran, at that time they did not have the courage to see the Rajput empire of India even by raising their eyes..!!
In 636 AD, the Caliph launched the first attack on India. Not a single invader could go back alive.
For a few years, the Muslim invaders did not even dare to sleep facing India, but within a few years the vultures showed their caste…!
There was an attack again, at this time Osman had come to the throne of the Caliph. He sent a huge Islamic locust to India with a general named Hakim. The army was completely wiped out, and the commander Hakim was taken prisoner. The prince was killed a lot by the Indian Rajputs, and sent back to Arabia in a very bad condition, so that the condition of the misfortune of his army would reach Osman.
This process continued till about 700 AD. All the Muslims who turned their face towards India, Rajputs took their heads down from the shoulders.
When 7th century Islam started, when from Arabia to Africa, Iran, many Europa countries, Syria, Morocco, Tunisia, Turkey when these big countries became Muslims, “Bappa Rawal” Maharana Pratap’s grandfather was born in India It was over He had become a complete warrior, the Muslims were killed by that hero from Afghanistan, caught in the claws of Islam. Not only this, while fighting he reached the throne of the Caliph, where the Caliph himself had to beg for his life.
Even after that this process did not stop. India got warriors like Nagabhatta Pratihara II. Those who followed Rajput religion their whole life not only protected the whole of India, but also kept the sting of our power in the world.
It was first proved in Bappa Rawal that Arabs are not undefeated, but during 836 AD, it happened in India, which stunned the world-conquering Muslims. Muslims have called him their biggest enemy in their history, that Sardar was also a Rajput.
Emperor Mihirbhoja Pratihara. It is said about Mihirbhoja, that his majesty shone more than sage Agastya. Sage Agastya is the one who gave the weapon to Shri Ram, by which it was possible to kill Ravana. One of the hidden warriors of Rama’s conquest..! He limited the Muslims to only 5 caves. This was the same time, when the Muslims only won a war in a war, and would have made the people there Muslims, the brave Rajput of India, Mihirbhoj, shook these revolutionaries to Arabia.
Till 400 years after the rise of Islam till Prithviraj Chauhan, the Rajputs of India did not let the disease named Islam affect India, did not allow India’s economy to fall even during that war. After that, the Muslims managed to enter some places by taking the diabolical support of mutual tension and enmity of some Rajputs, but the Rajputs did not give up even after losing their power. One day he did not sit peacefully, the last hero Durgadas ji Rathore bowed down Delhi, the fort of Jodhpur was taken out by the circles of the Mughals, adding to the dignity, valor and valor of Hindu religion. .
Muslims did not take an average of 20 years to convert any country into a Muslim. Even after ruling over different regions in India for 500 years, Maharana Raj Singh, the lion of Mewar, did not allow the stamp of Islam even on his horse.
Who does not know the might of Maharaja Ranjit Singh who defeated every enemy
Almost all Rajputs including Maharana Pratap, Durgadas Rathod, Mihirbhoj, Durgavati, Chauhan, Parmar went on to play for their motherland. There was a time when the fighting Rajputs stopped at only 2%.
Look at the whole world once and see your present today…!! The Muslims who converted almost half of the world’s population into Muslims in 20 years, why did they remain confined to Pakistan and Bangladesh only in India?
It was accepted that fighting was the religion of the Rajput kings at that time, but when the kings performed their religion, today the descendants of those warriors were insulted by the Hindus by creating imaginary stories on their daughters and granddaughters. Glorifying the false history imposed by some so-called secular Hindus

Warrior Queen Nayaki Devi, who defeated Muhammad Ghori

Warrior Queen Nayaki Devi, who defeated Muhammad Ghori

Indian History in text books was written mostly by people who were not patriots not only that but behind every history text books there are political and western influences.
There are many dynasties who ruled for centuries, but few invaders who ruled for lesser years got more coverage.
Many warriors, especially females were neglected and never included in history.
One such is Nayaki Devi, the queen of Gujarat. She defeated Muhammad of Ghori 14 years before he faced Prithviraj Chauhan.

Muhammad Ghori defeated by Nayaki Devi. 🙏

It is well known that Muhammad Ghori defeated Prithviraj Chauhan at the 2nd Battle of Tarain in 1192 CE.
However, he was defeated by Nayaki Devi, a Goa born, Queen of Gujarat.
Nayaki Devi belonged to Chalukya Clan and was widow of Solanki King Ajaya Pala, who ruled for a short period of 4 years around 1170 CE.

She was the daughter of the Kadamba ruler Mahamandalesvara Permadi of Goa and after the death of her husband, Nayaki Devi served as a Queen Regent as her son Mularaja II was just a child.
Their capital was Anahilapataka (modern Patan in Gujarat).
Gujarati court poet Someshwara, who served in the court of the later Solanki kings mentions that the infant king Mularaja (Nayaki Devi’s son) defeated an army of mlechhas (Ghori invaders).

However, the most exact description of Nayaki Devi defeating Muhammad Ghori’s army comes from works of the 14th CE Jain scholar Merutunga . In his work, Prabandha Chintamani he mentions how Nayaki Devi, the Queen and mother of Mularaja II, fought the armies of the mleccha king at Gadararaghatta or Kyara near the foot of Mount Abu.

The 13th century Persian chronicler Minhaj-i-Siraj from Ghor, who later served as chronicler to the Slave dynasty of Delhi, mentions that Muhammad Ghori marched towards Nahrwala (the Solanki capital Anhilwara) via Uchchha and Multan.
The ‘Rae of Nahrwala’ (the Solanki king) was young, but commanded a huge army with elephants. In the ensuing battle, ‘the army of Islam was defeated and put to rout,’ and the invading ruler had to return to without any accomplishment.

Nayaki Devi on Elephant.

Nayaki Devi was the daughter of Goa Kadamba King Shivachitta Paramardi.
Nayaki Devi needed a strategy to defeat the enemy. She chose the site of the battle- the hilly passes of Gadaraghatta at the foot of Mount Abu near the village of Kasahrada, known was modern day Kyara in Sirohi district, 65 km away from Anahilavada. The narrow passes gained a huge advantage and the odds were balanced- the invading army was at great disadvantage.
The Chaulukya army was headed by Nayaki Devi with the boy king sitting on her lap. Her army and the troop of war-elephant crushed the massive army, which once defeated the mighty sultans of Multan like child’s play. Nayaki Devi killed several enemy soldiers forcing them to flee.
Muhammad Ghori fled with a handful of bodyguards. This battle was known as Battle of Kasahrada.

Due to this defeat, Ghori changed his plan while invading India next time. The following year, Muhammad Ghori entered India through Khyber pass, captured Peshawar followed by Lahore.

There are two Sanskrit inscriptions of Gujarat, where Mulraja-II is invariably mentioned as the conqueror of Garjanakas [dwellers of Ghazni]. One inscription states that “even a woman could defeat the Hammira [Amir], during the reign of Mulraja II..”
Few years later, Nayaki Devi’s daughter Kurma Devi defeated Qutbuddin Aibak in another battle. Jai Bhawani.

दिल्ली के संस्थापक तोमर वंश

दिल्ली के संस्थापक तोमर वंश के 10 वी शादी के 16 वे राजा अनंगपाल तोमर द्वितीय महाप्रतापी राजा का योगदान, उनकी भूमिका और चरित्र इतिहास में दबा रह गया। न जाने क्यों ?

पद्मविभूषण से अलंकृत पुरातत्वशास्त्री प्रो. बृजबासी लाल ने इस पर काफी शोध किया है, पुस्तक भी लिखी है। लेकिन इंद्रप्रस्थ के आंचल में ढिल्लिकापुरी बसी, फली-फूली और आज तक चली आ रही है दिल्ली के रूप में, यह कितने लोग जानते हैं?

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के ब्रिटिशकालीन अधिकारियों जैसे लार्ड कनिंघम से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में डॉ. बुद्ध रश्मि मणि तक अनेक विद्वान इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने ढिल्लिकापुरी के अनेक प्रस्तर अभिलेख और संस्कृत के उद्धरण उत्खनित कर खोज निकाले, जिनसे सिद्ध होता है कि राजपूत महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय ने महरौली कुतुब मीनार के पास विष्णु स्तंभ की स्थापना कर जो नगरी बसाई वह स्वर्ग जैसी मनोहर ढिल्लिकापुरी थी।

वर्तमान राष्टपति भवन जब मूल वायसराय पैलेस के रूप में बन रहा था तो रायसीना के पास सरबन गांव में जो प्रस्तर अभिलेख मिले उनमें ढिल्लिकापुरी का मनोहारी वर्णन है। ये प्रस्तर खंड पुराना किला के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें से एक पर लिखा है- (जो विक्रम संवत् 1384 की तिथि बताता है)

देशास्ति हरियाणाख्य: पृथिव्यां स्वर्गसन्नमि:।
ढिल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।।

इस धरती पर हरियाणा नाम का प्रदेश है, जो स्वर्ग के सदृश है, राजपूत तोमरों द्वारा निर्मित ढिल्लिका नाम का नगर है। वही ढिल्लिका कालांतर में दिल्ली नाम से जानी गई, जिसे अंग्रेजों के समय अलग अंग्रेजी वर्तनी के साथ देहली कहा गया। महाराजा अनंगपाल तोमर का बड़ा पराक्रमी और शौर्यवान इतिहास है। उन्होंने महरौली के पास 27 विराट सनातनी, जैन मंदिर बनवाए थे। उनके द्वारा एक सुंदर छोटी झील अनंगताल का निर्माण किया गया। फरीदाबाद के पास अनंगपुर गांव है, अनंग बांध है और अनंगपुर दुर्ग है। महाराजा अनंगपाल द्वितीय के द्वारा जैन भक्ति का प्रकटीकरण भी प्रचुर मात्रा में हुआ। कुतुब मीनार तथा कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद इन्हीं मंदिरों को तोड़कर उन मूर्तियों को दीवारों में लगाकर बनाई गई। आज भी वहां गणपति की अपमानजनक ढंग से लगाई गई मूर्तियां, महावीर, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां, दशावतार, नवग्रह आदि के शिल्प दीवारों तथा छतों पर स्पष्ट रूप से लगे दिखते हैं। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनंगपाल के 300 साल बाद उनके द्वारा बनाए मंदिरों का ध्वंस कर कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवाई थी

महाराजा अनंगपाल द्वितीय राजपूत तोमर वंश के राजा थे। इन्होंने 1051 से 1080 ई. तक यानी 29 साल 6 माह और 18 दिन दिल्ली पर शासन किया और इसे समृद्ध बनाया। कुव्वत-उल-इस्लाम और अन्य मौखिक किंवदंतियों के अनुसार, अनंगपाल द्वितीय ने 27 मंदिर और एक महल का निर्माण कराया था। जोकि राजपूत वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है, इनमें से एक विख्यात योगमाया मंदिर कुतुब मीनार के पीछे स्थित है। अमीर खुसरो ने भी महाराजा अनंगपाल द्वितीय के बनवाए महल का उल्लेख किया है।

दिल्ली के संस्थापक मुगल नहीं थे, बल्कि अनंगपाल द्वितीय द्वारा स्थापित ढिल्लिका/ ढिल्ली ही आज की दिल्ली है। इसके बारे में बिजौलिया, सरबन और अन्य संस्कृत शिलालेखों में उल्लेख मिलता है। 10वीं सदी में प्रतिहारो के पतन के बाद तोमर वंश अस्तित्व में आया। इस वंश ने यमुना के किनारे अरावली पहाड़ियों के दक्षिण में योगिनीपुरा में अपने साम्राज्य की स्थापना की। प्रतिहारों के बाद इस वंश ने कन्नौज पर भी शासन किया। इंद्रप्रस्थ के वैभव खोने के बाद महाराजा अनंगपाल द्वितीय ने अरावली के पिछले हिस्से में 10 वीं सदी के मध्य में लाल कोटोर (लाल कोट) नामक सशक्त नगर बसाया था, जो ढिल्ली/ढिल्लिका का हिस्सा था।

इतिहासकार कनिंघम ने अबुल फजल द्वारा लिखित ‘आइन-ए-अकबरी’ तथा बीकानेर, ग्वालियर, कुमाऊं और गढ़वाल से मिली पाण्डुलिपियों से तोमर वंश का पता लगाया था। इन दस्तावेजों के अनुसार, तोमर वंश के शासनकाल की शुरुआत 8वीं सदी में ही हुई थी। इस वंश के 19 शासकों की सूची में महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय का उल्लेख है। उन्हें तोमर वंश का 16वां राजा माना जाता है। पालम बावली से मिले साक्ष्य स्पष्ट रूप से बताते हैं कि तोमर वंश ने सबसे पहले हरियाणका (हरियाणा) की भूमि पर शासन किया। यहां से प्राप्त अभिलेख में ढिल्लीपुरा का उल्लेख है, जिसे योगिनीपुरा नाम से भी जाना जाता था।

गुप्त-प्रतिहार काल के ये पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि इस क्षेत्र में एक मंदिर था, जिसे योगिनीपुरा कहा जाता था। बाद में तोमर वंश के शासन काल में इसका नाम ढिल्ली या ढिल्लिका पड़ा। इसके अलावा, मुहम्मद बिन तुगलक कालीन 1328 ई. का सरबन शिलालेख भी इसका अंतिम प्रमाण है। यह शिलालेख सरबन सराय में पाया गया था, जो आज राजपथ कहलाता है। इस अभिलेख के अनुसार, सरबन इंद्रप्रस्थ के प्रतिगण (परगना) में पड़ता था। ।
अनंगपाल केवल अपने विराट, सुंदर महलों और मंदिरों के लिए ही नहीं जाने गए, बल्कि वे लौह स्तंभ, जो वस्तुत: विष्णु ध्वज स्तंभ है, 1052 ई. में मथुरा से लाए। यह बात विष्णु ध्वज स्तंभ पर अंकित लेख से स्पष्ट है। कनिंघम ने उस लेख को सम् दिहालि 1109 अन्तगपाल वहि पढ़ा था और अर्थ किया था संवत् 1109 अर्थात् 1052 ई. में अनंगपाल ने दिल्ली बसाई।और 1060 ई के लगभग लालकोट यानी लालकिला बनवाया ।

प्रसिद्ध इतिहासकार व निदेशक शोध प्रशासन डॉ. ओम जी उपाध्याय का कहना है कि महाराज अनंगपाल द्वितीय के समय श्रीधर ने पार्श्वनाथ चरित नामक ग्रंथ की रचना की तथा उसमें अपने आश्रयदाता नट्टुल साहू का प्रशंसात्मक विवरण देने के बाद दिल्ली का भी वर्णन किया। इस ग्रंथ में अनंगपाल द्वारा हम्मीर को पराजित किए जाने से संबंधित पंक्तियां लिखी हैं, जिनका अर्थ विद्वानों ने अलग-अलग प्रकार से किया है। इस क्रम में अपभ्रंश के मान्य विद्वान और विश्व भारती शांति निकेतन के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राम सिंह तोमर ने जो अनुवाद किया, वह निम्नवत है- ‘‘मैं ऐसा समझता हूं- जहां प्रसिद्ध राजा अनंगपाल की श्रेष्ठ तलवार ने रिपुकपाल को तोड़ा, बढ़े हुए हम्मीर वीर का दलन किया, बुद्धिजन वृंद से चीन प्राप्त किया। बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में एक स्थान पर उभिलो चीरा मिलता है, जिसका अभिप्राय होता है- यशोगान किया या ध्वजा फहराई। इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि दिल्ली के महाराज अनंगपाल द्वितीय ने तुर्क को पराजित किया था तथा यह तुर्क इब्राहिम ही था।’’

इस तरह देखा जाये तो दिल्ली के संस्थापक महाराज के रूप में अनंगपाल का स्मरण दिल्ली के मूल वास्तविक परिचय का स्मरण ही है।

https://www.youtube.com/channel/UCntYd5pyvUBVkzSao2WAZQA

King Maan Singh

भारत पर विशाल आक्रमण करने केलिए, गजनवी की तरह ही भारत को लूटने के लिए काबुल के हकीम खान ने तुरान के शाशक अब्दुल्लाह से संधि कर ली ।

जून 1581 ईसवी में राजा मानसिंह आमेर अपने कच्छवाहा राजपूतों की एक विशाल सेना रूपी विजय वाहिनी लेकर काबुल के विद्रोही मिर्जा हकीम के विरुद्ध सिंधु नदी के उस पार पेशावर के लिए रवाना हुए।

इस अवसर पर राजा मानसिंह की सेना को अटक नदी (सिंधु नदी) को पार कर दूसरी तरफ जाना था, लेकिन कच्छवाहा राजपूत सैनिक अटक के उस पार जाने में संकोच व आनाकानी करने लगे। उनका मत था कि उस युग में भारत के बाहर जाना धर्म विरुद्ध माना जाता था।

उक्त अवसर पर मान सिंह ने अपने सैनिकों को समझाया और उनका संदेश दूर किया।

राजा मानसिंह इस अवसर पर कहते हैं कि –

सबै भूमि गोपाल की , या में अटक कहां?
जा के मन में अटक है, सोई अटक रहा।

तुरान देश में वर्तमान में जो देश आते है, उनका नाम भी जान लीजिए,

तुर्की, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज्जकिस्तान, आदि बड़े देश आते है, इनके साथ ईरान भी हो लिया, काबुल अफगानिस्तान था ही, वर्तमान बलूचिस्तान, जो पाकिस्तान का लगभग 70% है, वह भी भारत पर आक्रमण को तैयार था, वर्तमान पाकिस्तान का साथ तो निश्चित था ही,

और उस समय मुस्लिम आक्रमणकारियों की जनसंख्या का अनुपात राजपूत वीरो से बहुत ज्यादा था,

अनुपात देखे, तो भारत के एक एक सैनिक को मारने के लिए 150-150 मुसलमान थे का अनुपात था 1 राजपूत v/s 150 मुसलमान, ऐसे भयंकर आक्रमण को मानसिंहः जी ने रौका था, अगर मेवाड़ के चक्कर मे मानसिंहः रह जाते, तो ना तो मेवाड़ बचता, ओर ना भारत !!

ओर भारत मे राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, बिहार, गुजरात के मुसलमान और इनके साथ होते सो अलग, जब मानसिंहः जी ने यह खबर सुनी, तो वह तुरंत अफगानिस्तान के लिए रवाना हुए

ओर उन्होंने तुर्की, अफगानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान, कज्जकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान उज्बेकिस्तान जैसे देशों को परास्त किया । यह उस समय मिलकर पांच देश बनते थे इन्ही देशों का झंडा छीनकर जयपुर घराने का पंचरंगा ध्वज बना है,

तुर्की तक तो विजय ना किसी राजा ने पिछले 1000 सालों में प्राप्त की – ना ऐसा प्रयास कोई कर पाया, वो किया आमेर नरेश ने,

मालवा के शेरखान फौलादी को परास्त किया, इख्तियार उल मुल्क को परास्त किया, पटना के मुसलमान शासक को मारा, सिंध लाहौर तथा पंजाब से पठानों को भगाया, बंगाल तथा उड़ीसा के मुसलमान राजाओ पर विजय प्राप्त की,

झारखंड में आजकल जो साहिबगंज कहा जाता है, वह राजा मानसिंहः जी ने ही बसाया था, उसका नाम पहले “राजमहल” हुआ करता था, जो बंगाल की राजधानी हुआ करती थी, उसके बाद अकबर के बेटे जहांगीर ने राजधानी वहां से शिफ्ट कर ढाका बनाई थी, राजमहल पर भी मुसलमानो का अधिकार हो गया, ओर उसका नाम बदलकर साहिबगंज कर दिया, झारखंड के राजमहल (साहिबगंज) में मानसिंहः जी का बनाया हुआ किला आज लगभग पूरी तरह मिट चुका है,

मानसिंहः जी की वीरता का पूरा वर्णन लिखना संभव ही नहीं है, पूरा क्या अधूरा का आधा भी नहीं लिखा गया है,

महाराज मानसिंहः जी आमेर महाधर्नुधर दिग्विजयी राजा थे, उनके स्मृतिचिन्ह इस संसार मे चिरकाल तक बने रहेंगे, दान, दासा, नरु, किशना, हरपाल, ईश्वरदास जैसे कवियों को उन्होंने एक एक करोड़ रुपया उस समय दान दिया था, उनके काल मे छापा चारण जैसे उनके दास 100-100 हाथियों के स्वामी हो गए थे, मान के गौदान की सम्पूर्ण संख्या 1 लाख थी, अपनी आयु के 44 साल तो उन्होंने युद्ध मे ही बिताएं, कई बार तो उन्होंने एक एक लाख की सेना वाले मुसलमान राजाओ को परास्त किया, जिसमे एक भी जिंदा वापस नही जा सका था, शीलामाता आदि का सम्मान, ओर उद्धार करने में भी उनका नाम अमर है, देश के अधिकांश शहर, गांव, कस्वे, तालाब आदि उन्ही के नाम पर है, बंगाल में मानभूमि , वीरभूमि, सिंहभूमि, आमेर में मानसागर, मानसरोवर, मानतालाब, मानकुण्ड, काशी में मानघाट ओर मानमंदिर, मानगांव, काबुल में माननगर, मानपुरा, अन्यत्र मान-देवीमंदिर, मानबाग, मानदरवाजा, मानमहल, मानझरोखा, ओर मानशस्त्र आदि है !! इसके अलावा शीलामाता का मंदिर – गोविन्ददेव जी मंदिर, कालामहादेव मंदिर, हर्षनाथभैरव मंदिर, आमेरमहल, जगतशिरोमणि मंदिर तथा वहां के किले, 8 परकोटे, जयगढ़, सांगानेर की नींव, पुष्कर, अजमेर, दिल्ली, आगरा के किलो की मरम्मत, मथुरा, वृंदावन, काशी, पटना ओर हरिद्वार के घाटों का निर्माण भी मानसिंहः जी ने ही करवाया है !!

● राजा मान सिंह ने उड़ीसा में #जगन्नाथ_मंदिर समेत 7000 मंदिरों से ज़्यादा मंदिरों की रक्षा की ।

● राजा मान ने हिंदुओं का मुक्ति स्थल #गयाजी की न केवल रक्षा की, बल्कि वहां कई मंदिर बनवाये भी ।

●राजा मान ने एशिया की सबसे बड़ी शक्ति अफगान मूलवंश बंगाल सल्तनत का नाश किया

● राजा मान ने गुजरात को 300 साल बाद अफगान शासकों से आजादी दिलवाई

● राजा मान ने द्वारिकाधीश मंदिर को मस्जिद से पुनः मंदिर बनाया

● तुलसीदास का सरंक्षक राजा मान था । उन्ही के संरक्षण के कारण तुलसीदास रामायण लिखने में सफल हो पाए ।

● राजा मान ने काशी में हजारो मंदिरो का निर्माण करवाया

● राजा मान ने मीराबाई को पूरा सम्मान दिया, उनका भव्य मंदिर अपने ही राज्य में बनवाया

● राजा मान ने अफगानिस्तान को तबाह करके रख दिया, जहां से पिछले 500 वर्षों से आक्रमण हो रहे थे ।

● राजा मान ने ही पूर्वी UP से लेकर बिहार, झारखंड की रक्षा की

● राजा मान ने ही सोमनाथ मंदिर का दुबारा उद्धार किया था, हालांकि बाद में औरंगजेब ने इसे तोड़ डाला

●राजा मान ने ही हिंदुओ पर लगा हुआ 300 वर्ष से चल रहा जजिया कर हटवाया

● राजा मान ने ही मथुरा का उद्धार किया ।।

● राजा मान की प्रजा ही सबसे सुखी सुरक्षित और सम्पन्न प्रजा थी ।।

लेकिन राजा मान के सम्मान में सबके मुँह में दही जम जाता है, क्यो की उन्होंने इतना काम किया, की पिछले 500 वर्षों में उनके जोड़ का योद्धा ओर धर्मरक्षक आज तक पैदा नही हुआ ।।

लेकिन जब मैने मानसिंह की तारीफ शुरू की, तो एक सज्जन आकर बोलने लगे, राजा मानसिंह के कारण हम अपने सभी राजाओ का सम्मान दाव पर नही लगा सकते, तो इसका अच्छा अर्थ मुझे समझ आया, सबका सम्मान बचाने के लिए राजा मानसिंह को बलि का बकरा बना दो, ओर उनका अपमान करो ? उनके अपमान से सबकी कमियां ढक जाएगी …

जबकि हक़ीक़त यह है, की 1576 ईस्वी तक, जो हल्दीघाटी युद्धकाल समय था, उस समय तक मुगल तो मुट्ठीभर थे, भारत मे अफगान वंश के मुस्लिम कब्जा करके बैठे थे । मुगल तो यहां 100 साल भी ढंग से राज नही कर पाए ….

इतिहास का विश्लेषण कीजिये, ऐसा न हो कहीं हम कर्नल टॉड ओर चाटुकार इतिहासकारो का इतिहास पढ़कर भारत के वीर पुत्रो का अपमान कर रहे हो………………

भारत के सनातन धर्म रक्षक, महापराक्रमी, रघुकुल तिलक आमेर नरेश महाराज मानसिंह जी कछवाहा

बहुत छुपाया शोर्य तेरा झुठे इतिहासकारों ने।
बहुत बताया गलत तुम्हें इन बिके हुए गद्दारों ने।
राजा मान सिंह गद्दार नही बस झुठा भर्म फैलाया था।
था समझौता मजबुरी का पर बुद्धि से धर्म बचाया था।
गद्दारों की हार मान सिंह यु उनका गुस्सा फुटा था
कितने मंदिर हुए सुरक्षित ना फेर जनेऊ टुटा था।

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गजनी अफगानिस्तान-यदुवंशीभाटियों के पूर्वजो ने यहां तीनहजार साल राज किया

गजनी अफगानिस्तान-यदुवंशी, भाटियों के पूर्वजो ने यहां तीनहजार साल राज किया

नवरात्रि के दिन चल रहे हैं, देवी स्वरूपों के दर्शन करते-करते, देश-दुनिया के संग्रहालयों में रखी देवी मूर्तियों के विभिन्न स्वरूप भी ध्यान आकर्षित करते हैं, कितने कुशल कारीगर थे और कितनी श्रद्धा भक्ति से उन्हें मंदिरों में स्थापित करा गया था, आज खण्डित होकर भी उनमें सम्मोहन शक्ति मौजूद है। ऐसी ही देवी की एक खण्डित मूर्ति, काबुल संग्रहालय की तस्वीरों में देखने को मिलती है जो 80 के दशक में गजनी शहर के पास उत्खनन में मिली थी। इस मूर्ति के प्रति जैसलमेरी होने से आकर्षण और भी बढ़ जाता है क्योंकि जैसलमेर के इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान के गजनी का महत्वपूर्ण स्थान है। यदुवंश की पौराणिक राजधानियों से ऐतिहासिक राजधानियों का जुड़ाव इस गजनी शहर में ही होता है, जैसलमेर में मान्यता है की यदुवंशी राजा गज ने वहाँ दुर्ग की स्थापना करी थी और उसे यदुवंश की चौथी राजधानी बनाकर गजनी नाम दिया था , जिसे बाद में खुरासान(ख़्वारिज्म) और रुम(बायजेंटियम) के संयुक्त मोर्चे ने जीत लिया था। आज भी 10वी सदी से पहले के ऐतिहासिक साक्ष्यों की कमी के कारण कुछ इतिहासकार गजनी से जैसलमेर के जुड़ाव को किंवदंती मानकर अस्वीकार कर देते हैं। लेकिन एक सदी पूर्व तक जैसलमेर के विभिन्न समाजों और व्यापार के सम्बन्ध उस शहर से थे, जैसलमेर से बुखारा-मध्य एशिया जाने वाले प्रमुख व्यापारिक मार्ग पर यह महत्वपूर्ण पड़ाव था। विभिन्न प्राचीन पुस्तकों और आधुनिक पुरातात्विक खोजों से गजनी के इतिहास के कुछ रोचक तथ्यों के बारे में जानकारी मिलती है जो इस प्रकार है-

  1. गजनी का सबसे प्राचीन उल्लेख यूनानी(ग्रीक) भूगोलविद पटोल्मी द्वारा दूसरी ईस्वी शताब्दी में अपनी किताब जीयोग्राफिया में मिलता है, जहाँ इसका यूनानी भाषा मे नाम ग़जका लिखा गया है।
  2. ईस्वी वर्ष 629 में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनत्सांग इस शहर में रुका था, अपने आलेखों में उसने चीनी भाषा में इसका नाम हो-सी-ना लिखा है, जो रेशम मार्ग पर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था।
  3. ईस्वी वर्ष 950 में गजनी का उल्लेख भारत के महत्वपूर्ण स्मृद्ध व्यापारिक केंद्र और बिना बगीचों वाले खूबसूरत शहर के रूप में, बग़दाद के यात्री अबू ईशाक ईब्राहिम ईश्तकारी ने अपनी किताब, किताब-अल-मसलिक-वल-मामलिक में करा है।
  4. ईस्वी वर्ष 988 में अरबी लेखक इब्न हवकाल ने अपनी किताब सूरत-अल-अर्ज में वर्ष 961 से 966 ईस्वी तक गजनी पर तुर्क योद्धा अल्प्टिजिन के घेरे व हमले के बाद विध्वंस का जिक्र करा है, लेकिन फिर भी यह व्यापार का मुख्य केंद्र था और तुर्क समुदाय का मुख्य गढ़ बन चुका था।
  5. उन्ही वर्षों में लिखी फारसी किताब हुदूद-अल-आलम में ग़ज़नी का उल्लेख मिलता है जो उस वक्त तक खोरासान के दक्षिण-पूर्व में सीमांत बामियान प्रान्त के अधीन था और महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था इसका उपनाम फ़ूर्दत-अल-हिन्द था जिसका मतलब भारत का व्यापारिक केंद्र होता है। इस किताब में इसे ग़जना नाम से उल्लेखित करा गया है और इस किताब के लेखन के समय अल्पतजिन की मृत्यु के बाद उसके दास सबुक्तजिन को गद्दी पर बैठाया जा चुका था।
  6. इसके बाद सबुक्तजिन के उत्तराधिकारी, महमूद के शासनकाल में गजनी एक शक्तिशाली साम्राज्य की राजधानी के रूप में उभरा, जिसका उल्लेख महमूद के दरबारियों की किताबों में उल्लेखित हैं, विशेषकर अल-बेरुनी की किताब-उल-हिन्द में।
  7. लेकिन गजनी का वह वैभव एक सदी में ही खत्म होने लगा जब गुर के शासक हुसैन जहाँसोज ने ईस्वी वर्ष 1151 में शहर को आग के हवाले कर दिया।
  8. लेकिन एक बार फिर से यह नगर भारत के व्यापारियों से गुलजार हो गया और इसकी स्मृद्धि ने ईस्वी वर्ष 1221 में मंगोलों के हमले को प्रेरित करा, जिसका उल्लेख अरबी लेखक याकूत-अल-हमवी की किताब, किताब मुज्ज्म-अल-बुलदान में मिलता है।
  9. ईस्वी वर्ष 1332 में इब्नबतूता के समय यह शहर भूतहा खण्डहर बन चुका था और यहाँ रहने वाले कुछ हजार लोग भी सर्दियों में इसे छोड़कर कंधार चले जाते थे।
  10. ईस्वी वर्ष 1504 में बाबरनामा में इसका उल्लेख मिलता है, जहाँ बाबर आश्चर्य व्यक्त करता है कि रेशम मार्ग के इस महत्वपूर्ण पड़ाव को हिंदुस्तान और खुरासान के राजाओं ने कभी राजधानी क्यों नहीं बनाया, शायद उसे इसके इतिहास की सही जानकारी नहीं थी।
  11. यही आश्चर्य ईस्वी वर्ष 1832 में इसे पहली बार देखने वाले यूरोपीय यात्री चार्ल्स मैसन ने भी अपने यात्रा विवरण में व्यक्त करा है।
  12. ईस्वी वर्ष 1839 में सदियों से जीर्ण शीर्ण प्राचीन दुर्ग, खण्डहरों और इमारतों को अंग्रेजी फौज ने प्रथम अंग्रेज-अफ़ग़ान युद्धों में गोला बारूद से काफी नुकसान पहुँचाया था।
  13. आधुनिक काल मे 1960 से 2003 तक ईटली के पुरातत्वविदों की टीम ने जियोवानी वेरार्दी के निर्देशन में उत्खनन कार्य करे और नगर के प्राचीन इतिहास विशेषकर 6ठी सदी काल के कुछ अवशेष खोज निकाले, जिनमें प्राचीन दुर्ग के पास सरदार टेपे नाम के टीले से ईसा की दूसरी शताब्दी काल में कुषाण काल में बने महाराज कनिक विहार नाम के बौद्ध विहार और स्तूप के अवशेष, 15 मीटर लम्बी बुद्ध की लेटी मूर्ति के अवशेष, विभिन्न मूर्तियाँ, एक अन्य स्थान पर शिव मंदिर के अवशेष, दुर्गा जी की विशाल मूर्ति का सिर और महिषासुर की मूर्ति के अवशेष मिले।

इन विवरणों से यह स्पष्ट है कि गजनी ईसा की दूसरी शताब्दी में कुषाण काल में स्थापित हो चुका था और इसकी ख्याति महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र के रूप में यूनान तक पहुँच चुकी थी। जैसलमेर के इतिहास पर शोध करने वाले इतिहासकारों से विनती है गजनी के दूसरी शताब्दी से नौंवी शताब्दी तक के इतिहास को प्राचीन फ़ारसी, अरबी, चीनी, बाइजेंटाइन, आर्मेनियन, तुर्की ग्रन्थों और विदेशी पुरातत्वविदों के सहयोग से प्राप्त कर नई जानकारियों से यदुवंश के इतिहास की गुमशुदा कड़ियों पर खोजबीन करने की।

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Rajput history and savior of Bharat

पन्ना धाय से कम न था रानी बाघेली का बलिदान

भारतीय इतिहास में खासकर राजस्थान के इतिहास में बलिदानों की गौरव गाथाओं की एक लम्बी श्रंखला है इन्ही गाथाओं में आपने मेवाड़ राज्य की स्वामिभक्त पन्ना धाय का नाम तो जरुर सुना होगा जिसने अपने दूध पिते पुत्र का बलिदान देकर चितौड़ के राजकुमार को हत्या होने से बचा लिया था | ठीक इसी तरह राजस्थान के मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के नवजात राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब से बचाने के लिए मारवाड़ राज्य के बलुन्दा ठिकाने की रानी बाघेली ने अपनी नवजात दूध पीती राजकुमारी का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह के जीवन की रक्षा की व राजकुमार अजीतसिंह का औरंगजेब के आतंक के बावजूद लालन पालन किया, पर पन्नाधाय के विपरीत रानी बाघेली के इस बलिदान को इतिहासकारों ने अपनी कृतियों में जगह तो दी है पर रानी बाघेली के त्याग और बलिदान व जोधपुर राज्य के उतराधिकारी की रक्षा करने का वो एतिहासिक और साहित्यक सम्मान नहीं मिला जिस तरह पन्ना धाय को | रानी बाघेली पर लिखने के मामले में इतिहासकारों ने कंजूसी बरती है और यही कारण है कि रानी के इस अदम्य त्याग और बलिदान से देश का आमजन अनभिज्ञ है |

28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया | इन दोनों नवजात राजकुमारों व रानियों को लेकर जोधपुर के सरदार अपने दलबल के साथ अप्रेल 1679 में लाहौर से दिल्ली पहुंचे | तब तक औरंगजेब ने कूटनीति से पूरे मारवाड़ राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और जगह जगह मुग़ल चौकियां स्थापित कर दी और राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर राज्य के उतराधिकारी के तौर पर मान्यता देने में आनाकानी करने लगा |

तब जोधपुर के सरदार दुर्गादास राठौड़,बलुन्दा के ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास आदि ने औरंगजेब के षड्यंत्र को भांप लिया उन्होंने शिशु राजकुमार को जल्द जल्द से दिल्ली से बाहर निकलकर मारवाड़ पहुँचाने का निर्णय लिया पर औरंगजेब ने उनके चारों और कड़े पहरे बिठा रखे थे ऐसी परिस्थितियों में शिशु राजकुमार को दिल्ली से बाहर निकलना बहुत दुरूह कार्य था | उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |

छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |

यही राजकुमार अजीतसिंह बड़े होकर जोधपुर का महाराजा बने|इस तरह रानी बाघेली द्वारा अपनी कोख सूनी कर राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदलकर जोधपुर राज्य के उतराधिकारी को सुरक्षित बचा कर जोधपुर राज्य में वही भूमिका अदा की जो पन्ना धाय ने मेवाड़ राज्य के उतराधिकारी उदयसिंह को बचाने में की थी | हम कल्पना कर सकते है कि बलुन्दा ठिकाने की वह रानी बाघेली उस वक्त की नजाकत को देख अपनी पुत्री का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब के चुंगल से बचाकर मारवाड़ नहीं पहुंचाती तो मारवाड़ का आज इतिहास क्या होता?

नमन है भारतभूमि की इस वीरांगना रानी बाघेली जी और इनके इस अद्भुत त्याग व बलिदान को

दुश्मनों का काल रघुवंशी सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार

वीरों और योद्धाओं की जाति गुर्जर प्रतिहार रघुवंश शिरोमणि श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के वंशज हैं. इस वंश में एक से एक महाभट योद्धा और पराक्रमी शासक हुए जिसकी जितनी चर्चा और प्रशंसा की जाये कम है. इसी गौरवशाली वंश में सम्राट मिहिर भोज का जन्म हुआ था. उन्होंने ८३६ ईस्वी से ८८५ ईस्वी तक कभी कन्नौज तो कभी उज्जैन से शासन किया. भले ही वामपंथी इतिहासकारों ने मिहिर भोज के इतिहास को काट देने की साजिश की है, मिहिर भोज क्या उन सभी महान भारतीय सम्राटों और योद्धाओं को भारतीय इतिहास से गायब कर दिया है जिन्होंने अरबी, तुर्की मुस्लिम आक्रमणकारियों को धूल चटाया और उन्हें अरब तक या भारतवर्ष की सीमा से बाहर खदेड़ दिया, लेकिन स्कंद पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज की वीरता, शौर्य और पराक्रम के बारे में विस्तार से वर्णन है.
मिहिर भोज बचपन से ही वीर बहादुर माने जाते थे. उनका जन्म विक्रम संवत 873 को हुआ था. सम्राट मिहिर भोज की पत्नी का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था जो भाटी राजपूत वंश की थी. मिहिर भोज की वीरता के किस्से पूरी दुनिया मे मशहूर हुए. कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगिणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है.

राष्ट्र और धर्म की रक्षा केलिए पूर्ण समर्पित

प्रारम्भ से लेकर अंत तक उनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा. उन्होंने अपना जीवन अश्व के पीठ पर रण में ही बिताया. अरबी, तुर्की मुसलमानो ने अपने इतिहास में उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन कहा है. मिहिर भोज के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मुसलमानो को केवल 5 गुफाओं (क्षेत्रों) तक सीमित कर दिया था. यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध मे केवल जीत हासिल करते थे और वहां की प्रजा को मुसलमान बना देते थे पर भारत के इस वीर क्षत्रिय सम्राट मिहिर भोज के नाम से अरबी, तुर्की आक्रान्ताओं के दिल दहल जाते थे.
उन्होंने करीब नौ लाख की केन्द्रीय अश्वारोही सेना गठित की. सामंतों का दमन कर उन्हें उनका मूल कर्तव्य याद दिलाया और अपने पूर्वज नागभट्ट प्रथम व द्वितीय की आक्रामक नीति को और भीषण रूप से लागू कर उन्होंने सिंध पर आक्रमण किया और मुस्लिम आक्रमणकारियों का भयानक संहार किया.

परंतु स्थानीय हिंदू आबादी के नरसंहार की धमकी और मुल्तान के मंदिर और पुजारियों के कत्ल की भावनात्मक कपटजाल के कारण अरबों को कर देने की शर्त पर जीवन दान दे दिया. उन्होंने हिंदू मानकों के अनुरूप ऐसा सुसंगठित प्रशासन स्थापित किया कि उनके राज में चोरी डकैती और अपराध नहीं होते थे. संपन्नता इतनी ज्यादा थी कि आम नागरिक भी दैनिक जीवन में खर्च के लिये चांदी और सोने की मुद्रायें प्रयोग करते थे.

महान प्रशासक और कूटनीतिज्ञ

अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिला-उत-तारिका में लिखा है कि सम्राट मिहिर भोज के पास उंटों, घोड़ों और हाथियों की बड़ी विशाल और सर्वश्रेष्ठ सेना है. उनके राज्य में व्यापार सोने और चांदी के सिक्कों से होता है. इनके राज्य में चोरों डाकुओं का भय नहीं होता था.

मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कर्नाटक, आंध्रप्रदेश की सीमा तक, पूर्व में असम, उत्तरी बंगाल से लेकर पश्चिम में काबुल तक विस्तृत थी. 915 ईस्वी में भारत भ्रमण पर आये बगदाद के इतिहासकार अल मसूदी ने भी अपनी किताब मिराजुल-जहाब में लिखा कि सम्राट मिहिर भोज के पास महाशक्तिशाली, महापराक्रमी सेना है. इस सेना की संख्या चारों दिशाओं में लाखो में बताई गई है.
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार मिहिर भोज की एक सेना कनकपाल परमार के नेतृत्व में गढ़वाल नेपाल के राघवदेव की तिब्बत के आक्रमणों से रक्षा करती थी. इसी प्रकार एक सेना अल्कान देव के नेतृत्व में पंजाब के गुर्जराज नगर के समीप नियुक्त थी जो काबुल के ललियाशाही राजाओं को तुर्किस्तान की तरफ से होने वाले आक्रमणों से रक्षा करती थी. इसकी पश्चिम की सेना मुलतान के मुसलमान शासक पर नियंत्रण करती थी. परंतु मिहिर भोज का वह वास्तविक कार्य अभी भी शेष था जिसे मुस्लिम और वामपंथी इतिहासकार छिपाते आये हैं.

जबरन धर्मान्तरित हिन्दुओं का पुनरोद्धार
मिहिर भोज का ध्यान उस समस्या पर गया जिसके हल के बारे में उनकी सोच अपने समय से 1000 वर्ष आगे की थी. यह समस्या थी भारत में अरबों के अभियान के फलस्वरूप बलात धर्मांतरित हुए नवमुसलमानों की बडी संख्या. अपने ही बंधुओं से तिरस्कृत ये मुसलमान अपने ही देश में विदेशी अरब बनते जा रहे थे और अरबी तुर्की आक्रमण में मुस्लिम आक्रांताओं का साथ देने के लिये विवश थे. इस्लाम के फैलाव की इस प्रवृत्ति से पूर्णपरिचित मिहिर भोज ने इसका कठोर स्थाई हल निकाला उनकी दृढ़ता के आगे ब्राह्मणों की कट्टरता इसबार आवाज नहीं उठा सकी जैसा की पहले हुआ था. उन्होंने जबरन धर्मांतरित हिंदुओं को पुनः हिन्दू धर्म में वापसी का विकल्प दिया.

अधिकांश नवमुस्लिमों ने स्वेच्छा से ही “चंद्रायण व्रत” द्वारा प्रायश्चित्त कर वापस हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया, यहाँ तक कि बलत्कृत और अपह्रत स्त्रियों को भी चंद्रायण व्रत द्वारा पूर्ण पवित्र घोषित कर उनका सम्मान लौटाया गया. उनके इस सफल प्रयास से भारत अगले 150 वर्षों तक “बाहरी और भीतरी” इस्लामी आक्रमण से मुक्त रहा. दुर्भाग्य से परवर्ती हिन्दू राजाओं ने इनके इस कुशल नीति का अनुसरण नहीं किया जिसके कारण भारत का इस्लामीकरण होता चला गया.

भगवान विष्णु और महादेव के अनन्य भक्त
सम्राट मिहिर भोज भगवान विष्णु और महादेव के परमभक्त थे. उन्होंने आदि वराह की उपाधि धारण की थी. वह उज्जैन में स्थापित भगवान महाकाल के भी अनन्य भक्त थे. उनकी सेना जय महादेव, जय विष्णु, जय महाकाल की ललकार के साथ रणक्षेत्र में दुश्मन का खात्मा कर देती थी. उन्होंने कई भवन और मन्दिर का निर्माण करवाया था. राजधानी कन्नौज में 7 किले और दस हजार मंदिर थे. उनके द्वारा बनाये गये मन्दिर आज भी मौजूद है जैसे ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर, ग्वालियर का तेली का मन्दिर, गुजरात के त्रिनेत्रेश्वर मन्दिर, चम्बल का बटेश्वर मंदिर आदि (फोटो में).

मिहिर भोज के समय अरब के हमलावरों ने भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने की कई नाकाम कोशिश की. लेकिन वह विफल रहे. साहस, शौर्य, पराक्रम वीरता और संस्कृति के रक्षक सम्राट मिहिर भोज जीवन के अंतिम वर्षों में अपने बेटे महेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यास ले लिया था. मिहिर भोज का स्वर्गवास 888 ईस्वी को 72 वर्ष की आयु में हुआ था. भारत के इतिहास में मिहिर भोज का नाम सनातन धर्म और राष्ट्र रक्षक के रूप में दर्ज है.

प्रमुख स्त्रोत:
श्रेण्य युग-आर . सी. मजूमदार
प्राचीन भारत का राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास-डॉ. विमलचंद्र पांडे
प्रतिहारों का मूल इतिहास लेखक-देवी सिंह मंडावा
विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का इतिहास लेखक-डा अनुपम सिंह
ग्वालियर अभिलेख आदि

समुद्र के नीचे श्री कृष्ण के ‘ज़िंदा’ सबूत, Scientist भी हैरान। under ocean Dwarka

Rajput and resistance against Muslims

सन् 1840 में काबुल में युद्ध में 8000 पठान मिलकर भी 1200 राजपूतो का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाये।
वही इतिहासकारो का कहना था की चित्तोड की तीसरी लड़ाई जो 8000 राजपूतो और 60000 मुगलो के मध्य हुयी थी वहा अगर राजपूत 15000 राजपूत होते तो अकबर भी जिंदा बचकर नहीं जाता।
इस युद्ध में 48000 सैनिक मारे गए थे जिसमे 8000
राजपूत और 40000 मुग़ल थे वही 10000 के करीब
घायल थे।
और दूसरी तरफ गिररी सुमेल की लड़ाई में 15000
राजपूत 80000 तुर्को से लडे थे, इस पर घबराकर शेर
शाह सूरी ने कहा था “मुट्टी भर बाजरे (मारवाड़)
की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत खो बैठता”
उस युद्ध से पहले जोधपुर महाराजा मालदेव जी नहीं गए
होते तो शेर शाह ये बोलने के लिए जीवित भी नही
रहता।
इस देश के इतिहासकारो ने और स्कूल कॉलेजो की
किताबो मे आजतक सिर्फ वो ही लडाई पढाई
जाती है जिसमे हम कमजोर रहे,
वरना बप्पा रावल और राणा सांगा जैसे योद्धाओ का नाम तक सुनकर मुगल की औरतो के गर्भ गिर जाया करते थे, रावत रत्न सिंह चुंडावत की रानी हाडा का त्यागपढाया नही गया जिसने अपना सिर काटकर दे दिया था।
पाली के आउवा के ठाकुर खुशहाल सिंह
को नही पढाया जाता, जिन्होंने एक अंग्रेज के अफसर का सिर काटकर किले पर लटका दिया था।
जिसकी याद मे आज भी वहां पर मेला लगता है। दिलीप सिंह जूदेव का नही पढ़ाया जाता जिन्होंने एक लाख आदिवासियों को फिर से हिन्दू बनाया था।
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर
महाराणा प्रतापसिंह
महाराजा रामशाह सिंह तोमर
वीर राजे शिवाजी
राजा विक्रमाद्तिया
वीर पृथ्वीराजसिंह चौहान
हमीर देव चौहान
भंजिदल जडेजा
राव चंद्रसेन
वीरमदेव मेड़ता
बाप्पा रावल
नागभट प्रतिहार(पढियार)
मिहिरभोज प्रतिहार(पढियार)
राणा सांगा
राणा कुम्भा
रानी दुर्गावती
रानी पद्मनी
रानी कर्मावती
भक्तिमति मीरा मेड़तनी
वीर जयमल मेड़तिया
कुँवर शालिवाहन सिंह तोमर
वीर छत्रशाल बुंदेला
दुर्गादास राठौर
कुँवर बलभद्र सिंह तोमर
मालदेव राठौर
महाराणा राजसिंह
विरमदेव सोनिगरा
राजा भोज
राजा हर्षवर्धन बैस
बन्दा सिंह बहादुर
इन जैसे महान योद्धाओं को नही पढ़ाया/बताया जाता है, जिनके नाम के स्मरण मात्र से ही शत्रुओं के शरीर में आज भी कंपकंपी शुरू हो जाती है।

महाभारत काल ,चीन,यूरोप

पूरी पोस्ट गम्भीरता से पढ़े ,चीन की सभ्यता 5000 साल पुरानी मानी जाती है, लगभग महाभारत काल का समय, तो चीन का उल्लेख महाभारत में क्यों नहीं है?
महाभारत काल में भारतीयों का विदेशों से संपर्क, प्रमाण जानकर चौंक जाएंगे


युद्ध तिथि : महाभारत का युद्ध और महाभारत ग्रंथ की रचना का काल अलग अलग रहा है। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने की जरूरत नहीं। यह सभी और से स्थापित सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व को हुआ हुआ। भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ और कलियुग का आरम्भ कृष्ण के निधन के 35 वर्ष पश्चात हुआ। महाभारत काल वह काल है जब सिंधुघाटी की सभ्यता अपने चरम पर थी।
विद्वानों का मानना है कि महाभारत में वर्णित सूर्य और चंद्रग्रहण के अध्ययन से पता चलता है कि युद्ध 31वीं सदी ईसा पूर्व हुआ था लेकिन ग्रंथ का रचना काल भिन्न भिन्न काल में गढ़ा गया। प्रारंभ में इसमें 60 हजार श्लोक थे जो बाद में अन्य स्रोतों के आधार पर बढ़ गए। इतिहासकार डी.एस त्रिवेदी ने विभिन्न ऐतिहासिक एवं ज्योतिष संबंधी आधारों पर बल देते हुए युद्ध का समय 3137 ईसा पूर्व निश्चित किया है। ताजा शोधानुसार ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था।…तो यह तो थी युद्ध तिथि। अब जानिए महाभारत काल में भारतीयों का विदेशियों से संपर्क।
महाभारत काल में अखंड भारत के मुख्यत: 16 महाजनपदों (कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कोशल, मल्ल, काशी, अंग, मगध, वृज्जि, चे‍दि, मत्स्य, अश्मक, अवंति, गांधार और कंबोज) के अंतर्गत 200 से अधिक जनपद थे। दार्द, हूण, हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकय, वाल्हीक बलख, अभिसार (राजौरी), कश्मीर, मद्र, यदु, तृसु, खांडव, सौवीर सौराष्ट्र, शल्य, यवन, किरात, निषाद, उशीनर, धनीप, कौशाम्बी, विदेही, अंग, प्राग्ज्योतिष (असम), घंग, मालव, कलिंग, कर्णाटक, पांडय, अनूप, विन्ध्य, मलय, द्रविड़, चोल, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, आंध्र, सिंहल, आभीर अहीर, तंवर, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ लगभग 200 जनपद से अधिक जनपदों का महाभारत में उल्लेख मिलता है।
महाभारत काल में म्लेच्छ और यवन को विदेशी माना जाता था। भारत में भी इनके कुछ क्षेत्र हो चले थे। हालांकि इन विदेशियों में भारत से बाहर जाकर बसे लोग ही अधिक थे। देखा जाए तो भारतीयों ने ही अरब और योरप के अधिकतर क्षेत्रों पर शासन करके अपने कुल, संस्कृति और धर्म को बढ़ाया था। उस काल में भारत दुनिया का सबसे आधुनिक देश था और सभी लोग यहां आकर बसने और व्यापार आदि करने के प्रति उत्सुक रहते थे। भारतीय लोगों ने भी दुनिया के कई हिस्सों में पहुंचकर वहां शासन की एक नए देश को गढ़ा है, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, थाईलैंड इसके बचे हुए उदाहरण है। भारत के ऐसे कई उपनिवेश थे जहां पर भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचलन था।
ऋषि गर्ग को यवनाचार्य कहते थे। यह भी कहा जाता है कि अर्जुन की आदिवासी पत्नी उलूपी स्वयं अमेरिका की थी। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी कंदहार और पांडु की पत्नी माद्री ईरान के राजा सेल्यूकस (शल्य) की बहिन थी। ऐसे उल्लेख मिलता है कि एक बार मुनि वेद व्यास और उनके पुत्र शुकदेव आदि जो अमेरिका मेँ थे। शुक ने पिता से कोई प्रश्न पूछा। व्यास जी इस बारे मेँ चूंकि पहले बता चुके थे, अत उन्होंने उत्तर न देते हुए शुक को आदेश दिया कि शुक तुम मिथिला (नेपाल) जाओ और यही प्रश्न राजा जनक से पूछना।
तब शुक अमेरिका से नेपाल जाना पड़ा था। कहते हैं कि वे उस काल के हवाई जहाज से जिस मार्ग से निकले उसका विवरण एक सुन्दर श्लोक में है:- “मेरोहर्रेश्च द्वे वर्षे हेमवँते तत:। क्रमेणेव समागम्य भारतं वर्ष मासदत्।। सदृष्टवा विविधान देशान चीन हूण निषेवितान।
अर्थात शुकदेव अमेरिका से यूरोप (हरिवर्ष, हूण, होकर चीन और फिर मिथिला पहुंचे। पुराणों हरि बंदर को कहा है। वर्ष माने देश। बंदर लाल मुंह वाले होते हैं। यूरोपवासी के मुंह लाल होते हैं। अत:हरिवर्ष को यूरोप कहा है। हूणदेश हंगरी है यह शुकदेव के हवाई जहाज का मार्ग था।…अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। जम्बू द्वीप के वर्ण में अमेरिका का उल्लेख भी मिलता है। पारसी, यजीदी, पैगन, सबाईन, मुशरिक, कुरैश आदि प्रचीन जाति को हिन्दू धर्म की प्राचीन शाखा माना जाता है।

ऋग्वेद में सात पहियों वाले हवाई जहाज का भी वर्णन है।- “सोमा पूषण रजसो विमानं सप्तचक्रम् रथम् विश्वार्भन्वम्।”… इसके अलावा ऋग्वेद संहिता में पनडुब्बी का उल्लेख भी मिलता है, “यास्ते पूषन्नावो अन्त:समुद्रे हिरण्मयी रन्तिरिक्षे चरन्ति। ताभिर्यासि दूतां सूर्यस्यकामेन कृतश्रव इच्छभान:”।
श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्नि यान (अश्वतरी) से समुद्र द्वारा उद्धालक ऋषि को आर्यावर्त लाने के लिए पाताल गए। भीम, नकुल और सहदेव भी विदेश गए थे। अवसर था युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का। यह महान ऋषियोँ और राजाओँ को निमंत्रण देने गए। यह लोग चारों दिशाओं में गए। कृष्ण-अर्जुन का अग्नियान अति आधुनिक मोटर वोट थी। कहते हैं कि कृष्ण और बलराम एक बोट के सहारे ही नदी मार्ग से बहुत कम समय में मथुरा से द्वारिका में पहुंच जाते थे।
महाभारत में अर्जुन के उत्तर-कुरु तक जाने का उल्लेख है। कुरु वंश के लोगों की एक शाखा उत्तरी ध्रुव के एक क्षेत्र में रहती थी। उन्हें उत्तर कुरु इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे हिमालय के उत्तर में रहते थे। महाभारत में उत्तर-कुरु की भौगोलिक स्थिति का जो उल्लेख मिलता है वह रूस और उत्तरी ध्रुव से मिलता-जुलता है। हिमालय के उत्तर में रशिया, तिब्बत, मंगोल, चीन, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान आदि आते हैं। अर्जुन के बाद बाद सम्राट ललितादित्य मुक्तापिद और उनके पोते जयदीप के उत्तर कुरु को जीतने का उल्लेख मिलता है।
अर्जुन के अपने उत्तर के अभियान में राजा भगदत्त से हुए युद्ध के संदर्भ में कहा गया है कि चीनियों ने राजा भगदत्त की सहायता की थी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ सम्पन्न के दौरान चीनी लोग भी उन्हें भेंट देने आए थे।
महाभारत में यवनों का अनेका बार उल्लेख हुआ है। संकेत मिलता है कि यवन भारत की पश्चिमी सीमा के अलाव मथुरा के आसपास रहते थे। यवनों ने पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में भयंकर आक्रमण किया था। कौरव पांडवों के युद्ध के समय यवनों का उल्लेख कृपाचार्य के सहायकों के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यवन, म्लेच्छ और अन्य अनेकानेक अवर वर्ण भी क्षत्रियों के समकक्ष आदर पाते थे। महाभारत काल में विदेशी भाषा के प्रयोग के संकेत भी विद्यमान हैं। कहते हैं कि विदुर लाक्षागृह में होने वाली घटना का संकेत विदेशी भाषा में देते हैं।
जरासंध का मित्र कालयवन खुद यवन देश का था। कालयवन ऋषि शेशिरायण और अप्सारा रम्भा का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था। उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले। ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना।
महाभारत में उल्लेख मिलता है कि नकुल में पश्चिम दिशा में जाकर हूणों को परास्त किया था। युद्धिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने के बाद हूण उन्हें भेंट देने आए थे। उल्लेखनीय है कि हूणों ने सर्वप्रथम स्कन्दगुप्त के शासन काल (455 से 467 ईस्वी) में भारत के भितरी भाग पर आक्रमण करके शासन किया था। हूण भारत की पश्‍चिमी सीमा पर स्थित थे। इसी प्रकार महाभारत में सहदेव द्वारा दक्षिण भारत में सैन्य अभियान किए जाने के संदर्भ में उल्लेख मिलता है कि सहदेव के दूतों ने वहां स्थित यवनों के नगर को वश में कर लिया था।
प्राचीनकाल में भारत और रोम के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। आरिकामेडु ने सन् 1945 में व्हीलर द्वारा कराए गए उत्खनन के फलस्वरूप रोमन बस्ती का अस्तित्व प्रकाश में आया है। महाभारत में दक्षिण भारत की यवन बस्ती से तात्पर्य आरिकामेडु से प्राप्त रोमन बस्ती ही रही होगी। हालांकि महाभारत में एक अन्य स्थान पर रोमनों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार रोमनों द्वारा युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समापन में दौरान भेंट देने की बात कही गई है।
महाभारत में शकों का उल्लेख भी मिलता है। शक और शाक्य में फर्क है। शाक्य जाति तो नेपाल और भारत में प्रचीनकाल से निवास करने वाली एक जाति है। नकुल में पश्‍चिम दिशा में जाकर शकों को पराजित किया था। शकों ने भी राजसूय यज्ञ समापन पर युधिष्ठिर को भेंट दिया था। महाभारत के शांतिपर्व में शकों का उल्लेख विदेशी जातियों के साथ किया गया है। नकुल ने ही अपने पश्‍चिमी अभियान में शक के अलावा पहृव को भी पराजित किया था। पहृव मूलत: पार्थिया के निवासी थे।
प्राचीन भारत में सिंधु नदी का बंदरगाह अरब और भारतीय संस्कृति का मिलन केंद्र था। यहां से जहाज द्वारा बहुत कम समय में इजिप्ट या सऊदी अरब पहुंचा जा सकता था। यदि सड़क मार्ग से जाना हो तो बलूचिस्तान से ईरान, ईरान से इराक, इराक से जॉर्डन और जॉर्डन से इसराइल होते हुई इजिप्ट पहुंचा जा सकता था। हालांकि इजिप्ट पहुंचने के लिए ईरान से सऊदी अरब और फिर इजिप्ट जाया जा सकता है, लेकिन इसमें समुद्र के दो छोटे-छोटे हिस्सों को पार करना होता है।
यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्‍व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र था। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। मान्यता है कि यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के 3 भाई मिस्र में ही रहते थे। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था।
ऋग्वेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं। ऋग्वेद में नौका द्वारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख मिलते हैं। एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख भी मिलता है। ऋग्वेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ-साथ भारत के दोनों महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर कहा जाता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तारित तथा आरामदायक भी थीं।
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।
भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है।भारत में सिंधु, गंगा, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र ऐसी नदियां हैं जिस पर पौराणिक काल में नौका, जहाज आदि के चलने का उल्लेख मिलता है।
कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1. 25. 7, 1. 48. 3, 1. 56. 2, 7. 88. 3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है। ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व का समय महाभारत का काल था।
अमेरिका का उल्लेख पुराणों में पाताललोक, नागलोक आदि कहकर बताया गया है। इस अंबरिष भी कहते थे। जैसे मेक्सिको को मक्षिका कहा जाता था। कहते हैं कि मेक्सिको के लोग भारतीय वंश के हैं। वे भारतीयों जैसी रोटी थापते हैं, पान, चूना, तमाखू आदि चबाते हैं। नववधू को ससुराल भेजने समय उनकी प्रथाएं, दंतकथाएं, उपदेश आदि भारतीयों जैसे ही होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक ओर मेक्सिको है तो दूसरी ओर कनाडा। अब इस कनाडा नाम के बारे में कहा जाता है कि यह भारतीय ऋषि कणाद के नाम पर रखा गया था। यह बात डेरोथी चपलीन नाम के एक लेखक ने अपने ग्रंथ में उद्धत की थी। कनाडा के उत्तर में अलास्का नाम का एक क्षेत्र है। पुराणों अनुसार कुबेर की नगरी अलकापुरी हिमालय के उत्तर में थी। यह अलास्का अलका से ही प्रेरित जान पड़ता है।
अमेरिका में शिव, गणेश, नरसिंह आदि देवताओं की मूर्तियां तथा शिलालेख आदि का पाया जाने इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि प्रचीनकाल में अमेरिका में भारतीय लोगों का निवास था। इसके बारे में विस्तार से वर्णन आपको भिक्षु चमनलाल द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका’ में चित्रों सहित मिलेगा। दक्षिण अमेरिका में उरुग्वे करने एक क्षेत्र विशेष है जो विष्णु के एक नाम उरुगाव से प्रेरित है और इसी तरह ग्वाटेमाल को गौतमालय का अपभ्रंष माना जाता है। ब्यूनस आयरिश वास्तव में भुवनेश्वर से प्रेरित है। अर्जेंटीना को अर्जुनस्थान का अपभ्रंष माना जाता है।
पांडवों का स्थापति मय दानव था। विश्‍वकर्मा के साथ मिलकर इसने द्वारिका के निर्माण में सहयोग दिया था। इसी ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। कहते हैं कि अमेरिका के प्रचीन खंडहर उसी के द्वारा निर्मित हैं। यही माया सभ्यता का जनक माना जाता है। इस सभ्यता का प्राचीन ग्रंथ है पोपोल वूह (popol vuh)। पोपोल वूह में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की जो स्थिति वर्णित है कुछ कुछ ऐसी ही वेदों भी उल्लेखित है। उसी पोपोल वूह ग्रन्थ में अरण्यवासी यानि असुरों से देवों के संघर्ष का वर्णन उसी प्रकार से मिलता है जैसे कि वेदों में मिलता है।

Mamta Yas